राजेन्द्र शर्मा
इसके कारणों और इसलिए निहितार्थों तथा संकेतों पर तो बहस हो सकती है, लेकिन तथ्य निर्विवाद है कि मोदी-शाह की भाजपा विकास वगैरह के दावे छोडक़र खुलेआम अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर की शरण में जा पहुंची है। एक प्रकार से इसका ही ऐलान करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने नये साल के पहले ही हफ्ते में त्रिपुरा में अपनी पार्टी की एक चुनावी सभा में अयोध्या में मंदिर के चालू होने की तारीख की घोषणा कर दी थी। उन्होंने मोदी के मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले राहुल गांधी को संबोधित करते हुए ऐलान किया था, ‘एक जनवरी, 2024 को अयोध्या में गगनचुंबी राम मंदिर तैयार मिलेगा।’
हाल में नई दिल्ली में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक ने शाह के उस ऐलान पर मोहर लगाने की औपचारिकता भी अब पूरी कर दी है, लेकिन याद रहे कि यह इशारा सिर्फ राम मंदिर के बनने का या काशी कॉरिडोर, महाकाल कॉरिडोर, केदारनाथ पुनर्निर्माण, चार धाम एक्सप्रेस वे आदि को भी मोदी राज की सबसे प्रमुख उपलब्धियों में गिनाने के जरिए मोदी राज के हिंदू-प्रेम का ढोल पीटने का ही नहीं है। वास्तव में शाह ने त्रिपुरा के उस भाषण में यह भी स्पष्ट कर दिया था कि उनका मकसद अयोध्या में मंदिर खुलने की तारीख का ऐलान करना नहीं, कुछ और ही था, है, और होगा। असली मकसद है, इसका दावा पेश करना कि राम मंदिर मोदी की अकेली सरकार ने बनवाया है यानी मोदी राज ही हिंदू-हितैषी है। मोदी राज का विरोध करने वाली सभी राजनीतिक ताकतें हिंदू हितैषी नहीं हैं, बल्कि हिंदू विरोधी हैं।
इसीलिए शाह ने सीधे-सीधे मोदी सरकार द्वारा राम मंदिर बनवाए जाने का दावा ही नहीं किया, बल्कि उनका ज्यादा जोर तो इस दावे को विपक्ष के खिलाफ हमले का हथियार बनाने पर ही था। चूंकि अमित शाह यह दावा त्रिपुरा में कर रहे थे, जहां विधानसभा में सीपीएम मुख्य विपक्षी ताकत है, इसलिए उन्होंने इस हमले में उसे भी लपेट लिया। उन्होंने न सिर्फ कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी पर व्यंग्य करते हुए 1 जनवरी, 2024 से राम मंदिर पूजा-अर्चना के लिए खुल जाने का ऐलान किया, बल्कि कांग्रेस पर यह आरोप भी लगाया कि उसी ने अदालतों में राम मंदिर के निर्माण के मुद्दे को अटकाए रखा था। शाह ने कहा: ‘जब से देश आजाद हुआ तब से कांग्रेसी इसे कोर्ट के अंदर उलझा रहे थे। मोदी जी आए, एक दिन सुबह सर्वोच्च अदालत का फैसला आया और मोदी जी ने उसी दिन रामलला के मंदिर का भूमि पूजन कर मंदिर का निर्माण शुरू करा दिया!’ यह इसका संकेत है कि आगे-आगे मोदी-शाह का मुख्य जोर राम मंदिर के निर्माण के श्रेय की दावेदारी से बढक़र अपने राजनीतिक विरोधियों को मंदिर विरोधी साबित करने पर ही रहने जा रहा है, लेकिन यह भी महत्त्वहीन नहीं है कि इस तरह नये साल के शुरू में ही अमित शाह ने भाजपा के फिर राम मंदिर की शरण में जाने का बाकायदा जो ऐलान किया था, वह उस त्रिपुरा में किया था जहां उत्तर-पूर्व के ही दो अन्य राज्यों के साथ फरवरी में चुनाव हो रहे हैं। इनकी तारीखें आ गई हैं। दूसरे दो राज्य हैं, मेघालय तथा नगालैंड।
मौजूदा संकट खास तौर पर बढ़ती बेरोजगारी, मंदी, असमानता तथा जनता के विशाल हिस्सों की अधिकारहीनता के संदर्भ में मोदी सरकार आम लोगों को कोई उम्मीद देने में असमर्थ है। इन तीनों राज्यों में से त्रिपुरा, जहां भाजपा एक आदिवासी अलगाववादी संगठन के साथ गठजोड़ में पिछले चुनाव में सत्ता में रही है, में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें कुछ कारगर हो सकती हैं, और इसीलिए वहीं से अमित शाह ने राम मंदिर के चुनावी दोहन के ताजा चक्र की शुरुआत की, लेकिन मेघालय तथा नगालैंड में तो उतनी संभावना भी नहीं हैं, जहां भाजपा केंद्र सरकार तक पहुंच-पुल मुहैया कराने वाले जूनियर पार्टनर के तौर पर ही गठबंधन सरकारों में शामिल की गई है। यह विशेष रूप से अर्थपूर्ण है कि ऐसे क्षेत्र में इन कोशिशों के प्रभाव की सीमाओं को पहचानते हुए भी संघ-भाजपा मंदिर के मुद्दे को ही दुहने की कोशिश करने का सहारा लेने के लिए मजबूर हैं। इशारा साफ है, दुनिया भर में भारत का डंका बजने का कानफोडू प्रचार अपनी जगह लेकिन मोदी-शाह की भाजपा को संकट सामने देखकर राम याद आ रहे हैं।
कहने की जरूरत नहीं है कि फरवरी में होने वाले तीन राज्यों के चुनाव से तो शुरुआत भर होनी है। इसके बाद, इसी साल के मध्य में-मई-जून-में कर्नाटक में भाजपा के लिए और जाहिर है कि उसके विरोधियों के लिए भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण चुनाव होने हैं। साल के आखिरी महीनों में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना तथा मिजोरम में और भी महत्त्वपूर्ण चुनाव चक्र आने वाला है। भाजपा ने आम तौर पर इन सभी चुनावों खास तौर पर उत्तर-पूर्व में त्रिपुरा समेत शेष सभी राज्यों में राम मंदिर निर्माण को तुरुप का इक्का बनाकर अपने पत्ते खेलने का ऐलान कर दिया है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस तुरुप का आजमाया जाना दिखाता है कि पूरे साल में होने वाले विधानसभा चुनावों में, जिनके नतीजों से 2024 के अप्रैल-मई तक होने वाले अगले आम चुनाव का वातावरण व स्वर तय हो जाने वाला है, संघ-भाजपा मोदी राज में कथित विकास के हवाई दावों के भरोसे से कम, नाकामी की हार की आशंकाओं से ही ज्यादा संचालित हैं।
इसीलिए, वे अपने सारे हथियार इस सवा-डेढ़ साल में आजमा लेना चाहते हैं, जिनमें राम मंदिर बनाने के दावे का कथित ब्रह्मस्त्र भी शामिल है। कहने की जरूरत नहीं है कि 1 जनवरी, 2024 की राम मंदिर के उद्घाटन की तारीख तो खुद ही संकेतक है कि 2024 का चुनाव मोदी की ‘राम मंदिर निर्माता’ की तस्वीर को ही सबसे आगे रखकर लड़ा जाएगा। संघ-भाजपा की काठ की हांडी कितनी बार चढ़ाई जा सकेगी, इसका जवाब फिलहाल तो भविष्य के गर्भ में ही छुपा है, फिर भी मजबूरी में राम याद आने के पीछे छुपे इशारों से इनकार भी तो नहीं किया जा सकता।