मुरार सिंह कण्डारी
नई दिल्ली: दिल्ली में रामलीला मैदान विख्यात चिन्तक के .एन. गोविंदचार्य , बड़ी जनसभा को सम्बोधित करते हुए कहा, बहुतसी धाराएं होगी, उसमें सही गलत में, जो प्रकृति के पक्ष में हो, वह सही, जो प्रकृति के पक्ष में हो, किन्ही कर्म से वह गलती उसी की एक झांकी लक्ष्मण बाल योगी जी ने अभी बताया, बहुत चिढ़ा रहे होंगे, फिर कुछ बातें निश्चित होगी, एक प्रकृति केंद्रित विकास की अवधारणा के अनुसार योजनाएं, नीतियों और जनता प्रशिक्षण, समाज और सरकार दोनों एक मेज़ पर रहे, यह एक धारा है। फिर विकाश सत्ता का विकेंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण के अनुसार भारत की राजनीति और भारत के अर्थ सहित की पुनर रचना करना। एक दूसरा काम है, इन दोनों के बारे में सहमत होकर अलग-अलग धाराए रहे।
उनके साथ संवाद सहमति और सहकार के रास्ते आगे बढ़ाना है, अभी तो इतना ही करिए कि हम ऐसे सामान धर्मी लोगों को जिला स्तर पर इकट्ठा करें और प्रकृति संवाद या ऐसा कोई बैनर बना ले जिले में ही नहीं मोहल्ले में हो और कोई एक विषय, छोटासा विषय प्रकृति से संबंधित जो हो उसको उठाकर समाधान की ओर हलचल करें। यह काम अभी करने लायक है,और इतना कर ले फिर जो पहले से इस दिशा में काम कर रहे हैं। उनकी खोज खबर लीजिए, उनको आवश्यक मदद कीजिए और जो काम हुआ है, अच्छा तो वैसे ही, काम और जगह पहले तो जोड़ लीजिए, कि इसमें सहयोगी कौन होंगे, फिर यह सब आप अपनी शक्ति, बुद्धि, क्षमता, प्रतिभा के आधार पर और अपनी सीमाओं को ध्यान में रखकर करें। यही अभी का काम है, फिर कुछ समय के बाद किसी और रूप में, स्वरूप में, मिलेंगे, हम सब उसमें, हमने क्या किया, क्या नहीं किया, क्या देखा,लेखा जोखा भी करेंगे, अभी तो मैं नहीं समझता हूं कि समय हो गया 500 साल से जो विकृतियों आई है। भारतीय समाज के चिंतन में और कार्य में उसकी चर्चा अभी नहीं होगी, अभी तो इतना ही हम सोच कर चले और समय भी हो गया है, केवल कुछ सम्मान करने की बात थी आओ, प्रकृति के साथ जिए।
आज की दिल्ली
बेहाल है। ऊंची इमारतें, चौड़ी सड़कें तो बनी, लेकिन दिल्ली को मिली, भीड़ और धूल की सौगात , ध्वनि, वायु व प्रदूषण से लोग त्रस्त है। और क्या दिल्ली, पूरी दुनिया का हाल भी कमोबेश यही है। समाधान नहीं मिल रहा है। ना सबमें है, लेकिन यह समझने को कोई तैयार नहीं कि समस्या खुद हमी ने खड़ी की है। सबने प्रकृति के साथ जो अत्याचार किया है, उससे धरती का संतुलन बिगड़ा है। तभी हर ओर पहाड़ घंस रहे हैं, नदिया सूख रही हैं, जैव संपदा, जनजीव संपदा सब पर संकट है। इनकी चिंता किसी की ही नहींकी तो सिर्फ अपनी। हम भूल गए कि मनुष्य की जिंदगी, जमीन, जल, जंगल, जानवर, पशु, पेड़, पहाड़, पड़ोस परिवार इन सबसे मिली हुई है।
किया क्या?
इन सबकी कीमत पर सिर्फ मनुष्य का ध्यान रखा। समग्र दृष्टिकोण की कमी रही। क्या मिला? मिलना था, स्थायित्व के साथ समृद्धि और शांति। पैमाना यही है विकास का, लेकिन तीनों ही पैमानों पर दुनिया झुलस रही है। समाधान मिल नहीं रहा है। हर तरफ समस्याएं ही समस्याएं हैं, आजीविका का संकट हर ओर है। सब अपनी-अपनी समस्या में अकेले रो रहे हैं।
ऐसी स्थिति में हम जिस राह पर चलते आ रहे हैं, उसको दुरूस्त करने की जरूरत है। अभी हमने प्रकृति की कीमत पर मनुष्य का ध्यान रखा है। अब इसे बदलने की जरूरत है। हमें प्रकृति का ध्यान रखना है। मनुष्य की कीमत पर तो नहीं, इसके साथ-साथ प्राथमिकता में प्रकृति हो।
कैसे करें? अकेले में जितना कर सकते हैं, वह करें। साथ में समाज की परंपराओं के साथ मिलकर जीने की कोशिश भी रें। वैसी परंपराओं की, जिनमें इंसान भी प्रकृति का अंग रहा है।
अब तो दुनिया के लोग भी मानने लगे हैं कि 200 साल पहले तक भारत दुनिया का सबसे धनी देश था। ताकत अभी ती बहुत बची है। हम सब फिर से उठ जाएंगे। और शांति, समृद्ध तथा सादत्य तीनों में सफल हो जाएंगे।
यह अकेले नहीं होगा। समाज के तौर पर, सरकार के साथ संवाद के आधार पर आगे बढ़ना है। प्रकृति की चिंता करनी , कोई छूटे नहीं, एक नहीं, अकेले नहीं, इकठ्ठा दिखें। इसी में हम सबका, प्रकृति का, जगत का कल्याण है। हम फिर से सुखी होगे, तनावमुक्त होंगे।