दिव्य कुमार सोती: अरुणाचल प्रदेश के तवांग में चीनी सैनिकों से झड़प के बाद भले ही चीनी विदेश मंत्री ने यह कहा हो कि चीन भारत से अच्छे रिश्ते चाहता है, लेकिन उस पर भरोसा करने का कोई मतलब नहीं। वैसे भी चीन कहता कुछ है और करता कुछ है। तवांग की घटना ने भारत-तिब्बत सीमा को लेकर 2020 से चल रहे सैन्य तनाव को एक बार फिर गहरा दिया है। गलवन की घटना के बाद पूर्वी लद्दाख के टकराव वाले कुछ क्षेत्रों में दोनों सेनाओं द्वारा कुछ दूरी बनाए जाने के बाद यह धारणा बनने लगी थी कि कुछ समय में शेष जगहों पर भी शांति बहाल हो जाएगी। इसका कारण बाली में प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की अनौपचारिक बातचीत की तस्वीरें भी थीं, परंतु इसके कुछ ही दिन के भीतर एम्स दिल्ली के सर्वर पर चीनी हैकरों द्वारा हमला किया गया और उसके बाद चीनी सैनिकों ने तवांग में नियंत्रण रेखा पार करने की असफल कोशिश की।
चूंकि तवांग में घुसपैठ का प्रयास करने वाली चीनी सैनिक टुकड़ी का आकार एक गश्ती दल से कम से कम छह गुना बड़ा था, इसलिए यह मानकर चलना चाहिए कि जो कुछ हुआ, वह किसी स्थानीय कमांडर के आदेश पर नहीं, अपितु बीजिंग में बैठे शीर्ष रणनीतिकारों के इशारे पर हुआ। पूर्वोत्तर के इलाकों में भारतीय सेना की मोर्चाबंदी भौगोलिक रूप से सुदृढ़ है और चीनी कमांडर भी अच्छी तरह जानते रहे होंगे कि इस प्रकार की घुसपैठ से वे यथास्थिति नहीं बदल पाएंगे। इसके बावजूद यह भी सही है कि पिछले एक वर्ष में चीन पूर्वोत्तर में एलएसी पर सैन्य तैनाती लगातार बढ़ाता जा रहा है। इसके पीछे उसके कई भूराजनीतिक और सामरिक उद्देश्य हैं। पहला तो भारतीय सेना को कई मोर्चों पर उलझाए रखकर उसके संसाधनों को लगातार दबाव में रखना है ताकि भारत के एक बड़ी सैन्य ताकत के रूप में उभार को धीमा किया जा सके।
यदि इस स्थिति से परेशान होकर भारतीय नेतृत्व बातचीत का प्रयास करे तो उस पर 1959-62 के दौरान तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई द्वारा बार-बार दिए गए सीमा समझौते को मान लेने का दबाव बनाया जा सके। इस प्रस्ताव के अंतर्गत चीन अरुणाचल के उस हिस्से को जहां भारत का नियंत्रण है, उसे भारत के हिस्से के रूप में मान्यता दे देगा और बदले में भारत पूर्वी लद्दाख और अक्साई चिन में चीन के कब्जे वाले क्षेत्र पर अपने ऐतिहासिक दावों को वापस ले लेगा। भारत सरकार 1962 के युद्ध के समय भी इस प्रस्ताव को नकार चुकी थी, परंतु समय-समय पर चीन की ओर से इस तरह का इशारा मिलता रहता है। यह प्रस्ताव इस तरह से बनाया गया है कि चीन सिर्फ उन इलाकों पर दावा छोड़ेगा, जो वह युद्ध के जरिये कभी नहीं जीत सकता और जो सामरिक रूप से भी उसके लिए अधिक महत्वपूर्ण नहीं, परंतु भारत को लद्दाख में हिमालय और काराकोरम के उन क्षेत्रों पर दावा छोड़ना पड़ेगा, जिसके जरिये वह पाकिस्तान और चीन, दोनों को दबाव में रखने के साथ अपनी शक्ति का विस्तार काराकोरम दर्रे के पार भी कर सकता है। यह स्थिति न सिर्फ भारत को मध्य और यूरेशिया में बड़ा खिलाड़ी बना सकती है, बल्कि तिब्बत और शिनजियांग पर चीनी नियंत्रण के लिए काफी चुनौतियां बढ़ा सकती है।
यह ध्यान रहे कि चीनी सेना के बड़े हिस्से ने तिब्बत पर आक्रमण शिनजियांग से होते हुए भारत के दावे वाले क्षेत्र से किया था। तिब्बत पर कब्जे के बाद उसने सबसे पहले शिनजियांग को तिब्बत से जोड़ने के लिए हाईवे का निर्माण किया था। सब सेक्टर नार्थ और सियाचिन में भारत की वर्तमान सैन्य स्थिति चीन और पाकिस्तान की शाक्सगम घाटी के जरिये बने लिंक के लिए सामरिक रूप से अत्यधिक चुनौतीपूर्ण है। 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण सिर्फ भूभाग के लिए नहीं, बल्कि एशिया का नेतृत्व अपने हाथ में लेने के लिए भी किया था। 1962 की हार ने हमारी साख को ऐसा धक्का पहुंचाया कि हम कई दशक तक उससे उबर नहीं सके।
वर्तमान में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत की अंतरराष्ट्रीय साख बढ़ती जा रही है और भारत को अब आर्थिक मोर्चे पर भी चीन के विकल्प के रूप में देखा जाने लगा है। हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार पहली बार पश्चिमी उद्यम पूंजी का बहाव चीनी स्टार्टअप्स से अधिक भारतीय स्टार्टअप्स में होने लगा है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत की आवाज को कहीं अधिक महत्व मिलने लगा है। चीन अच्छी तरह जानता है कि वह सीधे युद्ध में भारतीय सेनाओं को परास्त नहीं कर सकता। इसलिए अंदेशा यही है कि वह भारत की साख को धक्का पहुंचाने के लिए छोटी औचक सैन्य कार्रवाइयों का सहारा लेता रहेगा। चूंकि भारत की ओर से भी भारी सैन्य तैनाती है, अतः चीन की ओर से प्रयास ऐसे किसी क्षेत्र पर कब्जा करने का होगा, जहां की सुरक्षा को लेकर भारत कम सशंकित हो।
अगर चीन भारतीय भूमि के छोटे हिस्से पर भी कब्जा करने में सफल होता है तो भारत में राजनीतिक अस्थिरता का युग ला सकता है, जो देश के विकास में बाधक होगा। चीन भारत की इच्छाशक्ति का परीक्षण करने के लिए भूटान में भी नया मोर्चा खोल सकता है। ज्ञात हो कि वह भूटान के 12 प्रतिशत भूभाग पर पहले से ही दावा करता आ रहा है। चूंकि चीनी सेना नियंत्रण रेखा के पार लगातार तैनाती और स्थायी सैन्य ठिकाने बढ़ा रही है तो चीन के साथ किसी बड़ी सैन्य झड़प या छोटे युद्ध की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। इतिहास बताता है कि चीन अपने कदम वापस खींचने पर तभी मजबूर हुआ है, जब भारतीय सेनाओं ने रक्षात्मक की जगह आक्रामक रवैया अपनाया।
2020 में पूर्वी लद्दाख के टकराव वाले इलाकों से चीनी सेना तभी पीछे हटी जब भारतीय सेना ने कैलास शृंखला की सामरिक रूप से कई महत्वपूर्ण चोटियों को अपने कब्जे में ले लिया था। ऐसे में आवश्यक यह है कि भारत वैसी संभावनाएं फिर से तलाशे। दोनों सेनाएं जिस प्रकार के सैन्य तनाव में उलझी हैं, उसमें पहले आगे बढ़कर नियंत्रण स्थापित करने वाले की ही जीत होगी। 3500 किमी लंबी हिमालयी सीमा पर स्थायी सैन्य तैनाती भारत के हित में नहीं। इससे बचने के लिए चीनी शर्तें मानना सामरिक आत्मघात ही होगा। ऐसे में चीन के चक्रव्यूह को देर-सबेर तोड़ने का प्रयास करना ही होगा।
(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)