यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी ने मंदी की वजह से सारी दुनिया भर को दबाव में ला दिया है। अमेरिका से भी अच्छी खबरें नहीं मिल रही हैं। भारत से जर्मनी को होने वाले निर्यात के आंकड़े को देखते हुए यहां भी टेंशन बढ़ने लगी है। ऐसे में यूरोपियन सेंट्रल बैंक ने अगले दशक के लिए वैश्विक मुद्रास्फीति को लेकर जो भविष्यवाणी की है, वह बहुत ही निराशाजनक है।
जलवायु परिवर्तन की वजह बढ़ेगी महंगाई-रिपोर्ट
ब्लूमबर्ग के मुताबिक यूरोपियन सेंट्रल बैंक की एक नई रिसर्च के अनुसार जलवायु परिवर्तन की वजह से अगले दशक में वैश्विक मुद्रास्फीति में हर साल एक फीसदी तक की बढ़ोतरी दर्ज होगी। इस रिसर्च के मुताबिक मूलरूप से खाद्य पदार्थों की बढ़ी हुई कीमत इस मंहगाई के लिए जिम्मेदार रहेगा, जो की जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होने वाला है।
साल 2035 तक के लिए जाहिर किया अनुमान
पिछले हफ्ते प्रकाशित रिपोर्ट में साल 2035 तक तापमान में इजाफे की वजह से वार्षिक मुद्रास्फीति 0. 32 से 1. 18% तक रहने की भविष्यवाणी की गई है। यह स्थिति आम उपभोक्ताओं से लेकर नीति निर्माताओं के लिए भी परेशानी पैदा करने वाला होगा। यूरोपियन सेंट्रल बैंक ने मुद्रास्फीति को 2% तक रखने का लक्ष्य तय किया है।
उचित मौद्रिक नीति की आवश्यकता पर जोर
शोधकर्ताओं का कहना है, ‘जलवायु परिवर्तन से कीमतों की स्थिरता को खतरा है, जिसके प्रभाव से महंगाई बढ़ सकती है।’ शोधकर्ताओं मैक्समिलिअन कोट्ज, फ्रिडेरिक कुइक, एलनिजा लिस और क्रिस्टियाने निकेल के मुताबिक कीमतों को जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बचाने के लिए उचित मौद्रिक नीति की आवश्यकता होगी।
खाद्य महंगाई पर ज्यादा संकट
इस शोध पत्र के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग के चलते खाद्य महंगाई दर में सालाना 0. 92 से लेकर 3. 23% तक की बढ़ोतरी देखने को मिलेगी। इसमें कहा गया है कि विश्व के दक्षिण में ज्यादा तापमान देखने को मिलेगा, जिससे उनके सामने चुनौती और भी ज्यादा होगी।
मौजूदा समय में किसी टेक्नोलॉजी से ज्यादा उम्मीद नहीं
यही नहीं एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जलवायु विभिन्नता के चलते कीमतों में बहुत ज्यादा अंतर भी देखने को मिल सकता है। रिसर्च में इस बात का भी अनुमान जताया गया है कि अभी कोई ऐसी टेक्नोलॉजी की संभावना नहीं दिखाई पड़ती, जो इस संकट से निपटने में मदद कर सकेगा।
बीते तीन दशकों में जलवायु परिवर्तन की भीषण प्रभाव
ग्लोबल वार्मिंग की वजह से जलवायु परिवर्तन का संकट कितना ज्यादा गहराता जा रहा है, यह बात एक और नए शोध में सामने आई है। इसके मुताबिक मात्र पिछले तीन दशकों में इसके और मानवीय गतिविधियों की वजह से दुनिया में 50 फीसदी विशाल झीलें और जलाशय सिकुड़ चुके हैं।
अमेरिका में एक साल में इस्तेमाल हुआ जितना पानी खत्म
इस शोध के अनुसार 1992 से 2020 के बीच करीब 600 क्यूबिक किलोमीटर पानी खत्म हो गया। हालात की गंभीरता को ऐसे समझा जा सकता है कि यह इतना पानी है, जितना 2015 में पूरे अमेरिका में इस्तेमाल किया गया था।
भारत की स्थिति भी विपरीत है
भारत की बात करें तो इस शोध के मुताबिक प्रायद्वीपीय इलाके में स्थित आधे से ज्यादा जलाशयों में पानी की भारी कमी देखने को मिली है, जिसका मुख्य कारण उसमें गाद भरना है। पिछले हफ्ते जर्नल साइंस में छपा यह शोध बताता है कि भारत में प्राकृतिक झीलों पर क्लाइमेट चेंज का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा है, उनमें लद्दाख का त्सो मोरीरी झील भी शामिल है।
एक तो जलवायु परिवर्तन की वजह से एक्स्ट्रीम वेदर की घटनाएं बढ़ने के चलते कृषि प्रभावित हो रही है, ऊपर से जल के प्राकृतिक स्रोतों के सूखते जाने से भविष्य के लिए हाहाकार की चेतावनी मिल रही है और उस लिहाज से यूरोपियन सेंट्रल बैंक का अनुमान वास्तविक खतरे के प्रति आगाह करने वाला है।