कौशल किशोर |
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सर्वोच्च न्यायालय के संविधान पीठ द्वारा शीतकालीन अवकाश के बाद छः साल से लंबित नोटबंदी के मामले में महत्वपूर्ण फैसला सुनाया गया है। नए साल के पहले कार्य दिवस पर आए इस फैसले में ठिठुराने वाली सर्दी में गरमागरम बहस के लिए पर्याप्त मसाला मौजूद है। पीठासीन न्यायमूर्तियों के विपरीत विचारों के कारण बहस गरम है। तमाम राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने इसके पक्ष विपक्ष में ताल ठोक दिया है। इस पीठ में शामिल रहे पांच में से चार न्यायाधीशों ने केंद्र सरकार की नोटबंदी को पूरी तरह जायज ठहराया है और पांचवें न्यायमूर्ति ने अपनी असहमति व्यक्त करना अनिवार्य माना। हालांकि जस्टिस नागरत्ना ने इसे व्यक्त करते हुए स्पष्ट किया है कि नोटबंदी के पीछे केंद्र सरकार की मंशा अवश्य अच्छी थी। मोदी सरकार को इस फैसले से निश्चय ही बड़ी राहत मिलती है।
संविधान पीठ के इस फैसले का एक मात्र सर्वसम्मत बिन्दु केन्द्र सरकार का नेक इरादा है। भारत की आम जनता 2019 के लोक सभा चुनाव में इसे पहले ही स्पष्ट कर चुकी है। नोटबंदी से हुई असुविधा के बावजूद भी लोगों ने नरेन्द्र मोदी का समर्थन किया था। नतीजतन भारतीय जनता पार्टी को मिली बहुमत का पुराना सभी रिकॉर्ड टूट गया। नोटबंदी की ही वजह से 2016 के अंतिम सात हफ्तों पर उथल-पुथल हावी रहा। इसके कारण 19वीं सदी की एक यूरोपियन कहावत दोहराया गया, “हमें देश की मुद्रा जारी और नियंत्रित करने दो, फिर हमें इस बात की परवाह नहीं कि नियम-कानून कौन बनाता है”। देश भर में बैंकों और एटीएम मशीनों के सामने कतार दर कतार जमा होती रही। इस मामले में कुछ ही हफ़्तों में 50 से अधिक याचिकाएँ शीर्ष अदालत तक पहुँच गई थी। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन न्यायमूर्तियों की पीठ ने नौ सवाल उठाया। इन्हें आधिकारिक फैसले के लिए पाँच जजों वाली बड़ी बेंच को भेजने का निर्णय किया था। उस फैसले में उच्च न्यायालयों में विचाराधीन मामलों पर स्थगनादेश भी जारी किया गया था। साथ ही याचिकाकर्ताओं को प्रस्तावित संविधान पीठ के समक्ष उपस्थित होने के लिए खुली छूट दी गई।
पिछले साल विमुद्रीकरण की छठी वर्षगांठ से ठीक पहले जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर, बीआर गवई, एएस बोपन्ना, वी रामासुब्रमण्यन और बीवी नागरत्ना की संविधान पीठ ने इसकी सुनवाई शुरू किया था। संविधान पीठ ने केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक के पक्ष में 4:1 से फैसला सुनाया है। बहुमत का फैसला लिखने वाले जस्टिस गवई पुराने आदेश के नौ सवालों में से छह प्रश्नों की सूची तैयार करते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक और केन्द्र सरकार ने कार्यवाही के दौरान शीर्ष अदालत के समक्ष अपने रिकॉर्ड पेश किए। इनमें से कुछ विवरण संसद के समक्ष भी कभी प्रस्तुत नहीं किया जा सका था। लिहाजा इस सुनवाई के कारण देश की आम जनता को विमुद्रीकरण की आखिरी किस्त के बारे में जरुरी जानकारी मिलती है।
केंद्र सरकार अर्थव्यवस्था के तीन गंभीर मुद्दों को संबोधित करते हुए विमुद्रीकरण का फैसला लेती है। बाजार में नकली नोटों की बहुतायत थी जिसे पहचानना मुश्किल था। इसके अलावा बेहिसाब कलाधन उच्च मूल्यवर्ग की मुद्रा के रूप संचित माना गया और नकली नोट का इस्तेमाल विध्वंसक गतिविधियों, आतंकवाद व मादक पदार्थों की तस्करी के लिए किया जा रहा था। हालांकि ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि आज इन तीनों समस्याओं से भारत को मुक्ति मिल गई है। संविधान पीठ के सामने इनके सत्यापन की शर्त नहीं रही। इस मुकदमे की परिधि में शामिल संदर्भित सवालों का जवाब देकर मुकदमों को उसी पीठ के समक्ष पेश करने की बात कही गई है। हालांकि अब उस पीठ का अस्तित्व नहीं है। इसलिए संभव है कि शीर्ष अदालत भविष्य में इसका पुनर्गठन कर आगे की कार्यवाही भी सुनिश्चित करे।
न्याय से फैसले तक पहुंचने वाली सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में दो अहम सवालों को संबोधित करती है। इस प्रक्रिया में 1946, 1978 और 2016 के इतिहास से विमुद्रीकरण के पिछले तीन मामलों का विश्लेषण होता है। इस विवाद की जड़ में आरबीआई एक्ट की धारा 26 की उपधारा 2 में वर्णित “कोई” शब्द की भिन्न व्याख्याएं हैं। इस फैसले के बाद यह कहना लाजिमी है कि इस अधिनियम के तहत भी केंद्र सरकार किसी भी श्रृंखला और मूल्यवर्ग के सभी करेंसी के विमुद्रीकरण करने के लिए अधिकृत है। पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री और वरिष्ठ अधिवक्ता पी चिदंबरम ने आरबीआई अधिनियम की इस व्याख्या पर सवाल खड़ा किया था। ऐसा मानने से सरकार और रिजर्व बैंक संसद की शक्ति का अतिक्रमण करती है। इसे न्यायमूर्ति नागरत्ना सही ठहराती हैं। उन्होंने अपनी असहमति व्यक्त करते हुए स्पष्ट किया है कि यह विमुद्रीकरण आरबीआई की मौलिक सिफारिश का परिणाम नहीं है, बल्कि यह उनसे प्राप्त की गई थी। इसलिए उन्होंने 8 नवंबर 2016 की अधिसूचना को अवैध करार दिया है। साथ ही विमुद्रीकरण को त्रुटिपूर्ण माना है। इसके बाद जारी अध्यादेश और अधिनियम को भी उन्होंने गैरकानूनी माना है। इसमें वर्णित न्यायमूर्तियों के विरोधाभाषी तर्क से न्याय का विचार महज फैसले में सिमट कर रह जाता है।
दूसरा सवाल मुद्रा जारी करने व नियंत्रित करने के मामले में लोकतांत्रिक सरकार की शक्ति से संबंधित है। 1946 और 1978 में सरकार द्वारा एक अध्यादेश पेश किया गया था। बाद में इसे विधायिका ने भी अनुमोदन कर मान्यता प्रदान किया था। लेकिन उन दोनों मामलों में केंद्रीय बैंक ने नोटबंदी के प्रस्ताव का विरोध किया था। इसलिए उन मामलों में सरकार के पास करेंसी नोट के विमुद्रीकरण का कोई अन्य साधन नहीं था। फैसले का प्रभावी दृष्टिकोण अटॉर्नी जनरल की इस बात को मान्यता देती है। इस विषय में जस्टिस नागरत्ना ने अपनी वैचारिक असहमति व्यक्त किया है। उन्होंने भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची में वर्णित संघीय सूची की ओर संकेत किया है। इसकी छत्तीसवीं प्रविष्टि मुद्रा, सिक्का और कानूनी निविदाओं पर प्रकाश डालती है। विमुद्रीकरण और पुनर्मुद्रीकरण के लिए केंद्र सरकार को इसी प्रावधान के अनुसार संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। लेकिन इस पर चलने से देश में उथल पुथल मचाने की संभावना खत्म हो जाती।
मोदी सरकार के विमुद्रीकरण की नीति को सही ठहराने वाला यह फैसला छह लंबी प्रतीक्षा के बाद आया है। पांच साल बाद शीर्ष न्यायालय ने अपने ही आदेश का पालन कर संविधान पीठ का गठन कर सुनवाई शुरू किया था। निश्चय ही नोटबंदी का शिकार हुए बेगुनाह पीड़ितों की इतने से ही न्याय की आशा पूरी नहीं होती है। इसकी वजह से बड़ी संख्या में देश के लोगों को कष्ट झेलना पड़ा था। सौ से ज्यादा लोगों को जान गंवानी पड़ी। ऐसे लोग आज भी न्याय का इंतजार कर रहे हैं। साथ ही यह भी सच कि इन निर्दोष पीड़ितों की अथाह पीड़ा को कम किया जा सकता था। इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व को जस्टिस नागरत्ना की तरह ही न्यायप्रिय और बुद्धिमान होना चाहिए था। संविधान पीठ ने संदर्भित आदेश से जुड़े प्रश्नों का जवाब देकर सभी 58 मामलों को वापस भेज दिया है। इन सीमित सवालों से पृथक नोटबंदी से जुड़े अन्य मामलों की सुनवाई शेष है। पता नहीं इनकी ओर शीर्ष न्यायमूर्ति का ध्यान कब आकर्षित होगा। न्याय पालिका मुकदमों को निपटाने की खूब कोशिश कर रही है। लेकिन समय सीमा के मामले में न्यायालय का व्यवहार चिंतनीय है।