बिक्रम उपाध्याय : यदि विपक्ष की माने तो देश में निजी क्षेत्र की कंपनियों को बढ़ावा देना घोर पूंजीवादी काम है, जिसे क्रोनी कैपिटलिज्म कहा जा रहा है और अपने ही देश की कंपनियों को विदेशों में अवसर दिलाने को घोर भ्रष्टाचार। यदि राजनीति में यही फॉर्मूला चलाना है तो फिर विपक्ष दोष सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को क्यों ही दे रहा है। हिम्मत के साथ बताना चाहिए कि घोर समाजवादी होने का दावा करने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी कैपिटलिज्म को गोद में बिठाया, उनके बाद इंदिरा, राजीव, नरसिंहराव, और मनमोहन सिंह ने भी उसे पाला पोसा, बल्कि गलबहियां भी की।
सच तो यह है कि पूंजीवादी व्यवस्था के काल में हर देश अपने निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने में लगा है और राष्ट्राध्यक्ष अपने देश की कपंनियों को आगे बढ़ाने के लिए हर हथकंडा अपनाने के लिए तत्पर हैं। क्या अमेरिका हो, क्या यूरोप, क्या आस्ट्रेलिया या क्या अफ्रीका। यह समय है कि अपने-अपने लिए समृद्धि के आंकड़े बढ़ाएं और उसी के आधार पर दुनिया में राज करें।
आजाद भारत में पहला घोटाला नेहरू के जमाने में ही सामने आ गया था जिसे हम सभी जीप घोटाला के नाम से जानते हैं। तब ब्रिटेन में नियुक्त भारत के उच्चायुक्त वी के कृष्णमूर्ति ने 1947-48 में पाकिस्तान के साथ युद्ध होने की स्थिति में ब्रिटेन से पुरानी जीप लेने का सौदा कर दिया। तब उसकी कीमत उतनी तय की गई, जितने में अमेरिका उसी तरह की नई जीप देने के लिए तैयार बैठा था। जिस एंटी मिसटेंट्स नाम की कंपनी को 2000 जीप का आर्डर दिया गया, तब उसकी पूंजी केवल 605 पाउंउ थी। इस कपंनी को भारत सरकार ने एक लाख 78 हजार डॉलर के भुगतान की हामी भी भर दी थी। लेकिन यह कंपनी ना तो ऑर्डर पूरा कर सकी और न इसके द्वारा भेजी कुछ जीपों का रक्षा मंत्रालय इस्तेमाल ही कर सका।
विपक्ष के साथ कांग्रेस के ही कुछ लोगों ने इसे घोटाला माना और मुद्दा संसद में उठा तो नेहरू सरकार ने जस्टिस अनंथसायनाम अय्यंगर के नेतृत्व मे एक न्यायिक जांच बिठाई। जांच छह साल चली, लेकिन एक दिन 1955 में तब के गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने अचानक इस जांच कमेटी को भंग करने की घोषणा कर दी। कारण यह दिया कि विपक्ष इस जांच कमेटी की रिपोर्ट से असंतुष्ट होने के बाद इसे चुनावी मुद्दा बनाएगा। क्या आज वही काम कांग्रेस नहीं कर रही है?
आज कांग्रेस समेत विपक्ष के लोग अडानी और प्रधानमंत्री मोदी की एक साथ तस्वीर दिखा कर यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि आज अडानी समूह जो कुछ भी है, मोदी सरकार के कारण है। किसी बड़े उद्योगपति और सरकार के बड़े मंत्री की साझा तस्वीरें उस कांग्रेस के लिए पहेली क्यों है जिसकी जड़ों में उद्योगपतियों के पैसे लगे हैं।
आजादी से पहले की कांग्रेस के लिए बिड़ला, बजाज, मोदी और टाटा ने ना सिर्फ स्वतंत्रता संग्राम में जुटे रहने वालों को आर्थिक सहयोग दिया, बल्कि कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं की सुख सुविधाओं का ख्याल भी रखा। देश आाजाद हुआ तो कांग्रेस ने भी इनके मान सम्मान में कोई कमी नहीं आने दी। यह किंवदंती नहीं है, सच्चाई है कि जमनालाल बजाज और नेहरू की इतनी गहरी दोस्ती थी कि जमनालाल के पोते का नाम खुद नेहरू ने राहुल रखा था।
बात सिर्फ व्यक्तिगत दोस्ती और संबंधों की ही नहीं है। कारोबार में भी नेहरू खुल कर अपने दोस्तों का साथ देते थे। लैक्मे ब्यूटी प्रोडक्ट का नाम जो घर घर में चल रहा है, उसकी शुरूआत नेहरू ने ही जेआरडी टाटा को प्रोत्साहित करके कराई थी। फ्रांस की कंपनी के साथ सहयोग कराने से लेकर इसके नामकरण तक में नेहरू की सक्रिय भूमिका रही।
किसी खास कॉरपोरेट या बिजनेसमैन को बढ़ाने और देश का नुकसान करने के आरोप से नेहरू भी नहीं बचे थे। 1960 के दशक में अमेरिका से लौटे एक शख्स जयंती धर्म तेजा को नेहरू सरकार ने एक सीमा से आगे जाकर मदद की। उसने अमेरिका से न्यूक्लियर साइंस की पढ़ाई की थी, लेकिन उसे काम देश में शिपिंग इंडस्ट्री को बढ़ाने का दिया गया।
जयंती ने देश के समुद्री बेड़े का कायाकल्प करने का एक प्रस्ताव नेहरू को दिया, जो उन्हें काफी पसंद आया। शिपिंग महानिदेशालय के अधिकारियों की विपरीत राय के बावजूद प्रधानमंत्री नेहरू ने सरकारी खजाने से करीब 20 करोड़ रुपये केवल 3 प्रतिशत के ब्याज पर दिलवा दिये। बाद में उसकी भी वही कहानी हुई, जो माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चोकसी की है। यहां मोदी ने माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चोकसी की ईंट- ईंट बिकवा दी। लेकिन तेजा से नेहरू, शास्त्री और इंदिरा गांधी तक ने पैसा वसूलने की कोशिश की पर नहीं कर पाए।
प्रधानमंत्री मोदी पर अभी तक विपक्ष ने जितने आरोप लगाए, उनमें घरेलू कंपनियों को फायदा पहुंचाने का ही आरोप है। किसी ने यह नहीं कहा कि एनडीए की सरकार में किसी विदेशी कंपनी की कोई दाल गली हो। राफेल का मुद्दा उठाया तो आरोप अंबानी पर लगाया। अब हिंडनबर्ग रिपोर्ट को बवेला बना रहे हैं तो गौतम अडानी को मोदी से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस पर लगातार विदेशी फर्मों को लाभ पहुंचाने और फिर उनसे पैसा प्राप्त करने का आरोप लगता रहा है।
इंदिरा गांधी के जमाने में 1976 में पेट्रोलियम घोटाला जब उभरा तो सामने आई हांगकांग की कंपनी कुओ ऑयल, जिसे भविष्य में तब की कीमत पर तेल की आपूर्ति के लिए 200 मिलियन डॉलर का कांट्रैक्ट दिया गया। आरोप लगा कि उसमें 13 करोड़ की रिश्वत संजय और इंदिरा गांधी ने खाई। इसी तरह राजीव गांधी के समय 1987 में स्वीडन की कंपनी बोफोर्स को हावित्जर तोप का सबसे बड़ा ऑर्डर दिया गया और उसमें सोनिया के नजदीकी इटली के क्वात्रोची के जरिए राजीव गांधी और उनके परिवार को 1.4 अरब डॉलर की रिश्वत पहुंचाने का आरोप लगा। टू जी-थ्री जी घोटाला और कोयला घोटाला में ऐसी कंपनियों के नाम आए जो कभी इन व्यवसायों में रही ही नहीं।
कांग्रेस जो आरोप आज मोदी पर लगा रही है, उसी तरह का व्यवहार और प्रयोग खुद करती आई है और अपने को पाक साफ होने का दम भर दावा भी करती है। क्या कांग्रेस को यह मालूम नहीं है कि दुनिया में कहीं भी कोई राष्ट्राध्यक्ष जाता है, अमूमन हर बार उसके साथ एक बिजनेस डेलिगेशन भी साथ होता है। सभी की कोशिश होती है कि जिस देश में भी जाएं, वहां से कुछ न कुछ बिजनेस लेकर आए।
इस समय चीन, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और कनाडा आपस में भिड़ ही इसलिए रहे हैं कि वे कुछ बिजनेस पर चीन का कब्जा नहीं होने देना चाहते। वे अपनी कंपनियों के लिए लड़ने मरने के लिए तैयार हैं। हम भी एक तरफ तो यह कहते हैं कि चीन के साथ हमारा व्यापार संतुलन बीजिंग के पक्ष में है, हमें अपनी कंपनियों को तैयार करना चाहिए, दूसरी तरफ सरकार पर यह आरोप लगाते हैं कि बाहर की दुनिया से बिजनेस लाने में हमारे प्रधानमंत्री किसी खास कंपनी की मदद करते हैं।
किसी देश के लिए उसकी किसी कंपनी को बड़ा बिजनेस मिलने पर कितनी बड़ी खुशी की बात होती है इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि जब टाटा समूह ने एक साथ 470 जहाजों का ऑर्डर अमेरिका और ब्रिटेन की कंपनियों को दिया तो अमेरिका के राष्ट्रपति और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक रूप से खुशियां जाहिर की और इसे ऐतिहासिक करार दिया। ऐसे में किसी व्यावसायिक घराने को निशाना बनाकर क्या विपक्ष की राजनीति केवल दिखावे के विरोध के लिए हो रही है?