Sandeep Agrawal
कानून व्यवस्था को बनाये रखने के लिए तमाम सरकारी उपायों में अब इंटरनेट पर बैन लगा देना भी जुड़ गया है। आम जनता के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल भले ही उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी का हिस्सा बन गया हो लेकिन सरकारी सिस्टम के लिए समय समय पर इस पर प्रतिबंध लॉ एंड ऑर्डर बनाये रखने का कानूनी अधिकार बन चुका है। इस अधिकार का इस्तेमाल करने में प्रशासन न कभी देर करता है और न संकोच। भले ही इसके लिए देश की अर्थव्यवस्था और देश की जनता को कोई भी कीमत चुकानी पड़े। फिलहाल इस इंटरनेट बंदी का शिकार मणिपुर हो रहा है जहां कुछ चरमपंथी गुट लगातार हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं।
बात-बात पर इंटरनेट बंदी का फार्मूला आजमाना, सरकार ने एक रुटीन बना लिया है। इंटरनेट बंदी का हथियार मौजूदा दौर में शासन-प्रशासन द्वारा कुछ ज्यादा ही इस्तेमाल किया जा रहा है। शायद यही वजह है कि पिछले पॉंच सालों से भारत इंटरनेट शटडाऊन की संख्या की दृष्टि से विश्व के सभी देशों में अव्वल बना हुआ है। 2022 में भी सरकार की ओर से 84 बार इंटरनेट बंद किया गया।
भारत में पहली बार इंटरनेट शटडाउन 2012 में गुजरात के साम्प्रादायिक दंगों के चलते अहमदाबाद में लागू किया गया था। तब से सैंकड़ों बार इसका इस्तेमाल किया जा चुका है। पिछले करीब डेढ़ महीने में, उत्तरपूर्वी राज्य मणिपुर में बार-बार इंटरनेट शटडाउन की घोषणा ने इस मामले को एक बार फिर चर्चा में ला दिया है। वजह है वहॉं लगातार हो रही हिंसा की वारदातें।
वैसे अगर सरकार को इंटरनेट शटडाउन करना ही हो तो वजह कोई भी हो सकती है। कभी परीक्षा, कभी साम्प्रादायिक तनाव, कभी चुनाव तो कभी विरोध प्रदर्शनों की आशंका। दिल्ली में किसान आंदोलन करने पहुँचे तो इंटरनेट शटडाउन, राजस्थान में आरईटी के एग्जाम हों तो नेट बंद, उपद्रवग्रस्त इलाकों में तो यह बहुत आम है ही। अकेले जम्मू-कश्मीर में 2022 में करीब पचास बार इंटरनेट बंद किया गया। इसमें भी 16 बार तो यह लगातार था। अब लगता है कि मणिपुर भी इसी राह पर बढ़ रहा है, जहॉं पिछले डेढ़ महीने में नौंवी बार इंटरनेट बंदी की गई है।
केंद्र और राज्य सरकारों को यह अधिकार देता है दूरसंचार सेवाओं के अस्थायी निलंबन (सार्वजनिक आपातकाल या सार्वजनिक सुरक्षा) नियम, 2017। इसकी आड़ में राज्यों के गृह मंत्रालय किसी भी क्षेत्र को समस्याग्रस्त मानकर वहॉं इंटरनेट शटडाउन के आदेश जारी कर सकते हैं।
यह नेटबंदी नोटबंदी से कम खतरनाक नहीं है। दोनों ही अर्थव्यवस्था व व्यवसाय को जमकर नुकसान पहुँचाते हैं। दोनों की वजह से जनता को परेशानी झेलनी पड़ती है। 2021 में देश में 1,157 घंटे इंटरनेट शटडाउन रहा, जिससे कारोबार को 4300 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। जबकि विश्व स्तर पर तीस हजार घंटे की इंटरनेट बंदी ने 40,300 करोड़ रुपए का नुकसान पहुँचाया। मजेदार बात यह है कि ग्लोबल इंटरनेट शटडाउन में 58 फीसदी की भागीदारी के साथ, भारत भले ही शीर्ष पर हो, लेकिन इसकी वजह से होने वाले नुकसान के लिहाज से यह तीसरे स्थान पर है।
इंटरनेट बंदी का असर सिर्फ अर्थजगत पर ही नहीं, बल्कि आम जनजीवन पर भी पड़ता है । 2021 के नेटबंदी के आंकड़े बताते हैं कि इससे देश में लगभग छह करोड़ लोग प्रभावित हुए थे। एक ऐसे दौर में जब यात्रा, बैंकिंग, इक्विटी ट्रेडिंग, चिकित्सा, पढ़ाई, पर्सनल कम्युनिकेशन, जैसे हमारे अधिकतर कामों का सम्पन्न होना इंटरनेट की उपलब्धता पर निर्भर है, क्या हम इस तरह के व्यवधानों को सहजता से ले सकते हैं?
वह भी तब, जब हम देख रहे हैं कि इससे समस्या की गंभीरता पर बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। मणिपुर का ही उदाहरण लीजिए। जहॉं पिछले मई के आरंभ से ही बार-बार नेटबंदी की जा रही है। लेकिन, इससे वहॉं हिंसा की वारदातें नहीं रुकी हैं। अगर वहॉं स्थिति में कुछ सुधार दिखाई भी दिया है तो इसके पीछे इंटरनेट बंदी से ज्यादा हमारे सैन्यबलों का चलाया गया सघन अभियान है।
इसके बावजूद इंटरनेट बंदी की जरूरत को पूरी तरह खारिज भी नहीं किया जा सकता। इसके कुछ फायदे तो होते ही हैं। जैसे इंटरनेट बंद रहे तो टैबलेट, कंप्यूटर, मोबाइल फोन और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के माध्यम से भीड़ जुटाने की कोशिशों, दुष्प्रचार और अफवाहों को काफी हद तक रोका जा सकता है। जानमाल के नुकसान को कम किया जा सकता है। कालांतर में हमने देखा है कि किस तरह इंटरनेट और सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर शरारती तत्व बार-बार कहीं का भी माहौल बिगाड़ने में कामयाब हो जाते हैं। और जहॉं माहौल पहले से ही बिगड़ा हुआ हो, वहॉं तो इस तरह की कोशिशें आग में घी का काम करती हैं। इसलिए आवश्यकता पड़ने पर इंटरनेट शटडाउन किया जाता है तो इसे हमेशा नकारात्मक तरीके से नहीं देखा जाना चाहिए। यह सही है कि इस तरह के आंकड़े जुटा पाना बहुत मुश्किल है कि इंटरनेट बंदी न होने से कितना नुकसान होता और नेटबंदी ने उसे कितना कम किया, फिर भी हालात को बदतर बनने से रोकने में इसका कुछ तो योगदान रहता ही है।
समस्या है, इसका मनमाने ढंग से इस्तेमाल। यह मुद्दा कोर्ट में भी जा चुका है। 2020 अनुराधा भसीन बनाम भारतीय संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि इंटरनेट बंदी के आदेश के लिए आवश्यक और आनुपातिक औपचारिकताओं को पूरा किया जाना चाहिए और इंटरनेट सेवाओं का अनिश्चितकालीन निलंबन भारतीय कानून के खिलाफ है। इसी का प्रभाव था कि केंद्र सरकार ने नवंबर 2020 में , इससे संबंधित तीन साल पुराने नियम में संशोधन किया और और इंटरनेट निलंबन आदेशों के लागू रहने की अवधि को पंद्रह दिनों तक सीमित कर दिया। हालांकि संचार और सूचना प्रौद्योगिकी की स्टैंडिंग कमेटी इन संशोधनों को पर्याप्त नहीं मानती। उसका कहना है कि इंटरनेट बंदी के सभी पहलुओं को देखते हुए नियमों में और संशोधन किये जाने चाहिए ताकि जनता के लिए नेटबंदी से न्यूनतम व्यवधान सुनिश्चित किया जा सके। इसके लिए उसने सम्पूर्ण नेटबंदी के स्थान पर चुनिंदा इंटरनेट सेवाओं को प्रतिबंधित करने का सुझाव दिया है। इससे आम लोगों के कामकाज को प्रभावित किए बिना नेटबंदी का उद्देश्य ज्यादा बेहतर तरीके से पूरा किया जा सकेगा।
सच भी यही है कि इंटरनेट बंदी एक दोधारी तलवार की तरह है जो एक और तो गलत सूचनाओं के प्रसार, अराजक गतिविधियों को रोकते हुए जन सुरक्षा को सुनिश्चित करने का प्रयास करती है। वहीं, दूसरी ओर इसे निजी स्वतंत्रता के हनन, आम जनता को परेशान करने, कारोबार को नुकसान पहुँचाने जैसी शिकायतों का भी सामना करना पड़ता है। इसलिए ऐसे किसी भी फैसले को लागू करने से पहले सोच-विचार बहुत जरूरी है, वर्ना इसके फायदे से ज्यादा नुकसानों की ही चर्चा होगी। इंटरनेट को संपूर्ण रूप से बंद करने की बजाय संकटकाल में अगर कुछ चुनिंदा सोशल साइटों या फिर मैसेजिंग साइटों को ही बैन किया जाए तो इससे भी नुकसान को कम किया जा सकता है।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।