हरिशंकर व्यास
विपक्ष, मोदी सरकार की गारंटी है। वक्त भले विपक्ष को छप्पर फाड़ मौका देता हुआ है लेकिन विपक्ष को केवल अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारनी है। सोचें, महंगाई की मौजूदा दशा पर। लेकिन इस सप्ताह संसद परिसर में कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों ने विरोध किया तो उससे ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की पार्टी के सांसद दूरी रखे हुए थे। किसलिए? ताकि वे कांग्रेस के साथ न दिखलाई दें! ममता बनर्जी भी अपनी अकेली की ताकत के भरोसे में हैं तो अरविंद केजरीवाल भी। वे मानते हैं ऐकला चलो से फलेंगे-फूलेंगे। अपने को बचाए रख सकते हैं। कांग्रेस और बाकी दूसरी विरोधी पार्टियों का पतन होगा और उनका उत्थान। अपनी ताकत बना कर, अपने को बचा कर, रेवड़ी राजनीति करके वे भाजपा के विकल्प बनेंगे। भाजपा की रेवडिय़ों, भाजपा के पैसे, बाहुबल को मात देने वाले सूरमा बनेंगे!
तभी महंगाई याकि जनता के मुद्दे पर भी अलग ढपली बजाओ। राष्ट्रपति चुनाव में आदिवासी द्रौपद्री मुर्मू से आदिवासी वोटों के स्वार्थ में यशवंत सिन्हा से दूरी और भाजपा के उम्मीदवार को समर्थन समझा जा सकता है लेकिन महंगाई, लोगों की रोजमर्रा की दिक्कतों पर भी विपक्षी एकता और साझा विरोध की सोच नहीं तो आगे के लोकसभा चुनाव में क्या होना है, समझ सकते हैं। सत्य है कि ममता बनर्जी ने खुद यशवंत सिन्हा का नाम सुझाया था। पर ममता बनर्जी ने बंगाल आने के लिए नहीं कहा। हेमंत सोरेन की जेएमएम, नवीन पटनायक की पार्टी का रुख आदिवासी कार्ड में समर्थन का था। हिसाब से हेमंत और नवीन पटनायक का अपने प्रदेशों में ठोस आदिवासी वोट आधार है। सवाल ही नहीं उठता कि यदि वे द्रौपदी मुर्मू को वोट नहीं डालते तो आदिवासी नाराज होते तथा भाजपा का आदिवासी वोट बढ़ता। मोदी राज में आठ साल से दलित, आदिवासी वोटों में जो पोजिशनिंग हुई पड़ी है उसमें चेहरों की प्रतीकात्मक राजनीति से अब फर्क नहीं पडऩा है। यदि विरोधी पार्टी के नेता सांसदों-विधायकों को अंतरात्मा की आवाज से वोट देने का पैंतरा चलते तब भी वह समझदारी वाला रास्ता होता।
लेकिन जनता को विपक्ष का सीन बंटा और बिखरा दिखलाई दिया। उस नाते राष्ट्रपति चुनाव और महाराष्ट्र में अघाड़ी सरकार का पतन सन् 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले का वह मोड़ है, जो विपक्ष को आगे कंफ्यूज किए रहेगा। एक तो शरद पवार अब लोकसभा चुनाव में भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं रहे हैं। ममता बनर्जी, शरद पवार, केसीआर जैसे दो-चार नामों से विपक्षी मोर्चे के बनने या प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के पहले जो ख्याल हुआ करते थे वे सब बेमतलब हो गए हैं। जब शरद पवार महाराष्ट्र में अपना मोर्चा और सरकार नहीं बचा पाए तो देश के लिए क्या विकल्प बना सकेंगे!
उस नाते शरद पवार की चुनौती खत्म करने के बाद सन् 2024 से पहले मोदी सरकार केसीआर, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल का या तो विधानसभा चुनाव या विधानसभा ही खत्म कर या सीबीआई-ईडी जैसे हथकंडों से निपटाने का रोडमैप बनाए हुए होगी। मैं नहीं मानता की अभी तेलंगाना में चंद्रशेखर राव की पार्टी चुनाव हार सकती है। लेकिन हैदराबाद की बैठक के साथ भाजपा जैसा टकराव बना रही है तो संभव है अगले साल के विधानसभा चुनाव में टीआरएस को दिक्कत हो। ऐसे ही यह नामुमकिन नहीं है जो केंद्र सरकार दिल्ली में विधानसभा ही खत्म कर, राजधानी दिल्ली में पुरानी व्यवस्था बहाल करके अरविंद केजरीवाल को पैदल बना दे। बाद में वे पंजाब की सरकार से राजनीति कर पाएं, यह संभव नहीं है। केंद्र सरकार के लिए दिल्ली, महाराष्ट्र से भी ज्यादा आसान पंजाब सरकार को ठिकाने लगाना है। जब शरद पवार, उद्धव ठाकरे जैसे अपनी सरकार नहीं बचा पाए तो पंजाब में खालिस्तान, भष्टाचार, चौबीसों घंटे एजेंसियों के निगरानी का ऐसा गोला-बारूद है कि न वहां धमकाना मुश्किल है और न खरीदना। फिलहाल हिमाचल, गुजरात में कांग्रेस के वोट कटवाने में भाजपा के लिए आप की उपयोगिता है, इसलिए कुछ समय टले रह सकता है। मगर केजरीवाल क्योंकि दिल्ली की छाती में मूंग दलते हुए हैं और सन् 2014 से ही, वाराणसी से मोदी बनाम केजरीवाल में ईगो की लड़ाई का सत्य है तो सर्वाधिक गाज तो केजरीवाल पर ही गिरेगी।
इसलिए केजरीवाल की अकेले की या केसीआर, ममता, हेमंत सोरेन आदि जितने नेता अकेले अपने बूते राजनीति और मोदी सरकार से अभय की गलतफहमियां पाले हुए हैं उन सबको शरद पवार और उद्धव ठाकरे के हस्र से समझना चाहिए। भारत अब वह लोकतांत्रिक देश नहीं है, जिसमें सबके लिए जगह हो। जब जनता के लिए खुली सांस नहीं है, डर, भय, भूख, महंगाई, बेरोजगारी, चौपट कामधंधों, बुलडोजर और बेमौत मौत के अनुभवों का प्रामाणिक तौर पर सिलसिला एक के बाद एक है तो विपक्षी नेताओं का बिना एकजुटता के क्या भविष्य है, यह सत्य मायावती से समझना चाहिए तो कुमारस्वामी और तमाम तरह के बड़बोले मुस्लिम नेताओं से भी।