प्रकाश मेहरा
नई दिल्ली। भारत एक ऐसा देश है, जहां शरणार्थी आते रहे हैं। सन् 1947 में बंटवारे के समय ही लाखों लोग सीमा पार करके यहां आए थे। कुछ इसी तरह की तस्वीर ‘मुक्ति- संग्राम’ के दौरान भी दिखी थी, जब पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से हजारों लोग भारत में दाखिल हुए। संयुक्त राष्ट्र का ‘कन्वेंशन’ कहता है कि शरणार्थियों को किसी भी देश में आने से नहीं रोका जाना चाहिए और यह उस देश के विवेक पर निर्भर है कि वह उन लोगों को अपना नागरिक बनाए या नहीं। मगर भारत ने इस कन्वेंशन पर हस्ताक्षर नहीं किया है। हमारी सोच यह रही कि पहले विभाजन की त्रासदी झेल रहे लोगों को बसाया जाए, फिर अन्य शरणार्थियों की सुध ली जाएगी। इसी वजह से उन्हें नागरिकता देने की एक व्यावहारिक नीति गढ़ी गई और कोई कानून नहीं बनाया गया।
देशभर में लागू हुआ नागरिकता अधिनियम
यह स्थिति साल 2019 तक रही, जब तक कि नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) को संसद से पारित नहीं किया गया। अब इसे अधिसूचित भी कर दिया गया है, जिसके बाद पूरे देश में यह कानून लागू हो गया है। इस संशोधित कानून के मुताबिक, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आने वाले गैर- मुस्लिम अल्पसंख्यकों (हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई) को भारतीय नागरिकता दी जा सकती है। इसकी शर्त यह होगी कि वे 31 दिसंबर, 2014 तक भारत में आ चुके हों। तर्क दिया गया है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश मुस्लिम बहुल देश हैं और वहां गैर-मुसलमानों को धर्म के आधार पर प्रताड़ित किया जाता है। अब इन मुल्कों से भारत आए लोगों को राहत मिल सकेगी।
वर्षों से शरणार्थी भारत में पर नागरिकता नहीं!
वाकई, इन देशों से भागकर आए शरणार्थी वर्षों से भारत में रह रहे हैं। चूंकि इनके पास कोई वैध दस्तावेज नहीं है, इसलिए कानूनन ये घुसपैठिए या शरणार्थी ही माने गए हैं। भारतीय कानून इनकी कोई मदद नहीं कर सकता था, क्योंकि इनको नागरिकता देने का कोई प्रावधान था ही नहीं। भारतीय संविधान उन्हीं लोगों को नागरिकता का हकदार मानता है, जो देश में संविधान लागू होने के समय (26 जनवरी, 1950) भारत के अधिकार क्षेत्र में निवास करते थे, और (1) जिनका जन्म भारत में हुआ है या (2) जिनके माता-पिता में से कोई एक भारत के नागरिक रहे हैं। इनके अलावा भी कुछ प्रावधान हैं, लेकिन मुख्यतः इन्हीं दो प्रावधानों को तवज्जो मिलती है। लिहाजा, पड़ोसी देशों से आए शरणार्थियों को नागरिक बनाने की मांग लंबे अरसे से की जा रही थी। हालांकि, 2019 में सीएए के पारित हो जाने के बाद भी यह मामला सिरे नहीं पकड़ सका, क्योंकि देश भर में इसके खिलाफ विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए थे। नतीजतन, इसे अधिसूचित करने में चार साल का वक्त लग गया।
CAA पर विपक्ष हमलावर क्यों?
आलोचकों के अपने तर्क हैं। हालांकि, संविधान की नजर से भी इसमें एक त्रुटि है। इसमें दरअसल धर्म को नागरिकता का आधार बनाया गया है, जबकि संविधान के भाग दो में, जिसमें नागरिकता का जिक्र है, धर्म शामिल नहीं है। आलोचक इसी बिना पर सीएए को संविधान की मूल भावना के खिलाफ बता रहे हैं, और इसकी सांविधानिक वैधता को लेकर अदालत की शरण में गए हैं, जहां अब तक सुनवाई का इंतजार हो रहा है। किसी शरणार्थी को नागरिकता देने में शायद ही किसी को ऐतराज है। विरोध की वजह उनमें धर्म के आधार पर किया गया बंटवारा है। अब सवाल पूछे जा रहे हैं कि क्या प्रताड़ित सिर्फ अल्पसंख्यक होते हैं? पड़ोसी देशों में अहमदिया (इस्लाम से अलग हुआ संप्रदाय) की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है, तो क्या उनको महज इसीलिए नागरिकता नहीं मिलनी चाहिए, क्योंकि वे मुसलमान हैं ?
CAA के बाद अब NRC की तैयारी!
सीएए के प्रति आशंका की एक वजह राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) भी है। यह विवादित इसलिए बन गया, क्योंकि 2003 में जिस संशोधन के जरिये इसे अधिकृत किया गया, उसमें यह स्पष्ट कहा गया है कि हर भारतीय का नाम इस रजिस्टर में होना चाहिए। सैद्धांतिक रूप से इसमें कोई दिक्कत नहीं है। ऐसा होना भी चाहिए। मगर इसके क्रियान्वयन में कुछ व्यावहारिक मुश्किलें हैं, जैसे- इसमें स्थानीय प्रशासन को रजिस्टर में नाम दर्ज कराने के लिए अधिकृत किया गया है। वह चाहे तो किसी का नाम इसमें दर्ज कर सकता है और किसी का नाम काट सकता है। परेशानी यह है कि हमारे प्रशासनिक ढांचे में काफी संख्या में भ्रष्ट, सांप्रदायिक और पक्षपाती लोग घुस गए हैं। इसी कारण भारत के मुस्लिमों में तमाम तरह की शंकाएं हैं। उनको डर है कि उनका नाम जबरन इसमें से हटाया जा सकता है। हालांकि, विरोध के बाद एनआरसी को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है, लेकिन सीएए के लागू होने के बाद यह आशंका फिर से सिर उठाती नजर आ रही है। कहा जा रहा है कि सिर्फ प्रताड़ित होकर नहीं, कई बार अच्छे अवसर की तलाश में भी पड़ोसी देशों से लोग यहां आते हैं। ऐसे में, वहां से आए मुसलमानों को अब भेदभाव का सामना करना पड़ सकता है।
आखिर इसका समाधान क्या है?
आदर्श स्थिति तो यही होती कि ऐसी किसी पहल पर विवाद ही न हो। इसके लिए आवश्यक यह है कि सरकार इस मसले से जुड़े सभी पक्षों को विश्वास में ले। वह उनकी बुनियादी समस्याओं को सुने और उनकी आशंकाओं को दूर करे। इसका ऐसा समाधान निकलना चाहिए कि किसी शरणार्थी को भारत में अपमानित न होना पड़े। आज देश में शरणार्थियों की कई पीढ़ियां मौजूद हैं। उनकी चिंताओं का हल निकालना जरूरी है। वैसे, कानूनी प्रावधानों के मुताबिक, आम चुनाव के बाद नई सरकार इसे वापस भी ले सकती है।
भारत में शरणार्थियों की समस्या
देखा जाए, तो भारत में शरणार्थियों की समस्या से निपटने के लिए विशेष कानून का होना आवश्यक है। यह तो हर कोई चाहता है, मगर मानवीय मदद की दरकार प्रत्येक शरणार्थी को है। अब तक हमारी नीति स्पष्टतः यही रही है कि हम शरणार्थियों को बेशक पनाह देंगे, लेकिन यह उम्मीद भी करते हैं कि हालात सुधरने पर वे स्वतः अपने मुल्क वापस लौट जाएंगे। वे स्थायी तौर पर यहां नहीं रहें, तो बेहतर है, क्योंकि हमें अपनी ही विशाल आबादी को संभालने में दिक्कतें पेश आती रही हैं। इसीलिए भारतीय संविधान में नागरिकता देने के सीमित प्रावधान किए गए थे। अब इसको व्यापक बनाने का प्रयास किया गया है, लेकिन दुर्भाग्य से वह भी कई सवालों में घिरता दिख रहा है।