नई दिल्ली : देश में इस वक्त कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनको लेकर बीजेपी 2024 लोकसभा चुनाव में उनको भुनाने की कोशिश कर रही है। इस कड़ी में फिर चाहे जी20 शिखर सम्मेलन हो, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण या फिर दलित-ओबीसी आरक्षण का मुद्दा। इन सब मुद्दों को लेकर द इंडियन एक्सप्रेस की कंट्रीब्यूटिंग एडिटर नीरजा चौधरी ने अपने कॉलम में कई मुद्दों का जिक्र किया है। नीरजा चौधरी ने लिखा कि इससे पहले कभी भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के लिए आरक्षण का इतना जोरदार समर्थन नहीं किया, जितना संघ प्रमुख मोहन भागवत ने इस सप्ताह किया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने बुधवार को कहा था कि जब तक समाज में भेदभाव है तब तक आरक्षण जारी रहना चाहिए। यह बयान भागवत के आठ साल (2015) पहले व्यक्त किए विचार से अलग है, तब उन्होंने रिजर्वेशन सिस्टम की समीक्षा का आह्वान किया था। संघ प्रमुख का ताजा बयान जाति-आधारित आरक्षण पर आरएसएस के पुराने रुख से अलग है।
आरएसएस ने 1990 में मंडल के दिनों से लेकर अब तक ओबीसी, अति पिछड़ा वर्ग (एमबीसी), दलितों और आदिवासियों तक अपनी पहुंच बनाने में इतनी लंबी दूरी तय की है कि उन्हें हिंदू समाज में शामिल करने में पहले कभी ऐसा नहीं हुआ। भले ही इसमें संघ को दो शताब्दियां लग जाएं। इसे लाने के लिए भागवत के शब्द विचारोत्तेजक थे। उन्होंने कहा, ‘आज दिखता नहीं है, लेकिन वो भेदभाव आज भी है। सम्मान की बात है। केवल आर्थिक बराबरी की बात नहीं है। केवल राजनीतिक बराबरी की बात नहीं है। इसे केवल तर्क-वितर्क के रूप में नहीं समझ सकते।
यह बात पूर्व प्रधान मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की याद दिलाती है, जिन्होंने उत्तर में ओबीसी को सशक्त बनाने की प्रक्रिया शुरू की थी। वहीं दक्षिण में यह प्रक्रिया 1926 में आत्मसम्मान के लिए पेरियार के ब्राह्मण विरोधी आंदोलन के साथ शुरू हुई थी। सिंह का मानना था कि ओबीसी सुविधा नहीं चाहते, लेकिन सत्ता में हिस्सेदारी चाहते हैं।
यह भाजपा और आरएसएस ही हैं जिन्होंने शुरू में 1990 में आरक्षण का विरोध किया था और जाति की पहचान की राजनीति का मुकाबला करने के लिए धार्मिक आधार पर हिंदुओं को एकजुट करने की अपनी मंदिर योजना को आगे बढ़ाया। क्षेत्रीय दलों को बढ़ावा दिया, लेकिन आज समय बदल चुका है। भाजपा-आरएसएस, जिसका प्रतिनिधित्व कभी तथाकथित ऊंची जातियों द्वारा किया जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। संशोधन करने के लिए ओबीसी और दलितों के लिए आरक्षण का मामला बनाया है। आरएसएस में स्पष्ट रूप से हृदय परिवर्तन हो रहा है- कुछ लोग इसे अति व्यावहारिकता कहेंगे लेकिन फिर, भारत की विविधता एक महान शिक्षक है। आज, भाजपा और आरएसएस के पास मंदिर और मंडल दोनों हैं, जिसके शीर्ष पर एक ओबीसी प्रधानमंत्री है।
विपक्षी इंडिया गठबंधन में 28 पार्टियां हैं। उनकी तरफ से पहली बाद देश में एक दलित नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को पीएम के रूप में पेश करने की संभावना के बारे में बात कर रहा है। ऐसा लगता है कि शक्ति नीचे की ओर बढ़ रही है।
मोहन भागवत के दलितों और ओबीसी को भरोसा देने वाला बयान सनातन धर्म पर विवाद के तुरंत बाद आया। जिसने दलितों को मंदिरों और उनके गर्भगृह सहित इसके दायरे से बाहर रखा। यह पूरा राजनीतिक विवाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे और मंत्री उदयनिधि स्टालिन की टिप्पणियों से शुरू हुआ। जिन्होंने कहा था कि सनातन धर्म को डेंगू और मलेरिया की तरह है इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए। उदयनिधि स्टालिन का समर्थन दलित द्रमुक सांसद ए राजा ने किया। डीएमके सांसद ए राजा ने कहा, ‘सनातन की तुलना एचआईवी और कुष्ठ रोग जैसी बीमारियों से की जानी चाहिए।’
गौरतलब है कि उदयनिधि को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के बेटे और कर्नाटक के मंत्री प्रियांक का समर्थन मिला, जिन्होंने कहा था कि सनातन धर्म असमानता को बढ़ावा देता है। प्रियांक अपने पिता के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए जाने जाते हैं और कट्टर हिंदुत्व की मुखर विरोधी है। वहीं भाजपा ने उदयनिधि की टिप्पणियों को लेकर इंडिया गठबंधन पर निशाना साधा। साथ ही इसे हिंदू आस्था को बदनाम करने की कोशिश करार दिया। यह एक ऐसा बयान था, जिसकी हिंदी पट्टी राज्यों पर जमकर विरोध हुआ। कांग्रेस समेत कई इंडिया गठबंधन के कई दलों ने उदयनिधि के बयान से खुद को अलग कर लिया और कई दलों ने इसका विरोध भी किया।
हालांकि, प्रधानमंत्री दक्षिण राज्य तमिलनाडु तक पहुंच रहे हैं। वहां के अधिनम (हिंदू मठों) ने नए संसद भवन में सेंगोल राजदंड स्थापित करवाया। इन सबके बावजूद बीजेपी आकलन कर सकती है कि उसे दक्षिण के राज्य में ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ और उसे दक्षिण में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए और अधिक कोशिश करनी होगी। वहीं दूसरी तरफ, विपक्ष की नजर दक्षिण और पूर्व दोनों पर है।
इसके अलावा, देश का नाम बदलने पर चर्चा जोरों पर है। भारत बनाम इंडिया की बहस से भाजपा को हिंदी पट्टी में समर्थन बनाए रखने में मदद मिलने की संभावना है। हालांकि, भारत और इंडिया इंटरचेंजेबल शब्द हैं। जिसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 1में है। हिंदी बेल्ट में भारत शब्द को अधिक आकर्षण के रूप में देखा जा रहा है, जबकि यह संभव है कि दक्षिण के कुछ हिस्से इसे हिंदी थोपने के रूप में देख सकते हैं।
सभी दृष्टिकोणों से देखें तो सरकार इस प्रक्रिया की जटिलता और लागत को देखते हुए देश का नाम बदलकर भारत करने पर आगे नहीं बढ़ सकती है। हालांकि, मंत्री और सरकारी पदाधिकारी भारत शब्द का अधिक प्रयोग कर सकते हैं। भारत के उपयोग के साथ, भाजपा विपक्षी इंडिया गठबंधन एक खराब माहौल पैदा करना चाहती है और इसे उस प्राचीन सभ्यता के बजाय देश के औपनिवेशिक अतीत से जुड़ी इकाई के रूप में पेश करना चाहती है, जिसका भारत प्रतिनिधित्व करता है। नाम बदलने का विचार लाने का दूसरा कारण देश में राष्ट्रवादी उत्साह जगाना हो सकता है, जो भाजपा के लिए समर्थन हासिल करने का एक आजमाया हुआ तरीका है।
भारत शब्द का इस्तेमाल और मोहन भागवत की दलितों और ओबीसी तक पहुंच तीसरी बार सत्ता हासिल करने की भाजपा की बड़ी रणनीति का हिस्सा है। अब जब भाजपा ने अपना मूल एजेंडा हासिल कर लिया है, तो वह आरएसएस विचारक के शब्दों में, “एक सभ्यतागत इकाई के रूप में भारत का उदय (The Rise Of Bharat)” दिखाएगी।