Anil Tiwari
नई दिल्ली : मोदी सरकार के दसवें वर्ष में प्रवेश करने के साथ ही मानों अगली बार पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनने की संभावना धुंधली होने लगी है। यही कारण है कि एक ओर जहां विपक्षी पार्टियां कांग्रेस की अगुवाई में इकट्ठा होने का प्रयास कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर लगातार दो बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाले नरेन्द्र मोदी की ओर से भी एनडीए के पुनर्जीवन के प्रयास शुरु हो गये हैं। 18 जुलाई को दिल्ली से दूर बंगलूरु में 26 विपक्षी दल जहां मोदी को हराने की रणनीति पर विचार कर रहे हैं वहीं दिल्ली में एनडीए के तहत 38 दलों को इकट्ठा करने का दावा किया जा रहा है।
संयोग से यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब गठबंधन की राजनीति का रजत जयंती वर्ष चल रहा है। आज से ठीक 25 साल पहले 1998 में नेशनल डेमोक्रेटिक एलाइंस (एनडीए) नामक राजनीतिक मोर्चे का गठन हुआ था। इसका श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी को जाता है। बाबरी विध्वंस के बाद राजनीतिक रूप से लगभग अछूत बना दी गई भाजपा को इससे न सिर्फ संजीवनी मिली बल्कि तीसरी बार प्रधानमंत्री की शपथ लेने वाले अटल जी के नेतृत्व में देश में पहली बार किसी गैर कांग्रेसी सरकार ने अपना कार्यकाल भी पूरा किया।
वास्तव में गठबंधन की राजनीति का ध्येय सर्वसमावेशी है। यह बहुजन हिताय से सर्वजन हिताय की ओर बढ़ने का माध्यम है। लेकिन गठबंधन की राजनीति के अंतर्विरोध भी खूब हैं। गठबंधन में शामिल छोटे-छोटे दलों के नेता व्यक्तिगत स्वार्थों और राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण गठबंधन का नेतृत्व करने वाले दल पर दबाव बनाकर अपने निजी हितों की पूर्ति करना चाहते हैं।
राजनीतिक विविधताओं से भरे भारत में गठबंधन की सरकारें हकीकत भी हैं और फसाना भी। शायद इसीलिए आजादी के बाद से ही मिली जुली सरकारों को देश के लिए अभिशाप बताने वाली कांग्रेस पार्टी ने कांटे से कांटा निकालने की तर्ज पर वर्ष 2004 में यूपीए गठबंधन को अमलीजामा पहनाया और गठबंधन के बूते लगातार 10 साल तक रायसीना हिल्स पर राज किया। लेकिन वर्ष 2014 में भाजपा को स्पष्ट बहुमत प्राप्त होने के बाद छोटे दलों की अहमियत वह नहीं रही जो 90 के दशक में थी। पिछले 9 वर्षों में विपक्षी एकता की तमाम कोशिशें हुई पर नतीजा सिफर ही रहा। अब जबकि 2024 का आम चुनाव नजदीक आ रहा है, एक बार फिर गठबंधन पर सबका जोर है।
पिछले दिनों पटना में बैठ चुके 15 विपक्षी दल चुनाव पूर्व गठबंधन के लिए बंगलुरु में फिर से बैठे हैं। वहीं स्पष्ट बहुमत के गुमान में छोटे सहयोगी दलों की अनदेखी के आरोपों से घिरे सत्ताधारी दल के कर्ता-धर्ता भी विपक्षी एकता के बरक्स राज्यों के छोटे-छोटे दलों को मिलाकर अपने गठबंधन का आकार बड़ा करने में दिन-रात जुटे हुए हैं। यानी कि 25 साल पहले जहां से गठबंधन की राजनीति चली थी, एक बार फिर उसी मोड़ पर आ पहुंची हैं।
जहां तक देश में राजनीतिक दलों के बीच गठबंधन कर चुनावी मोर्चा तैयार करने की बात है तो यह आजादी के बाद से ही विभिन्न स्वरूप में सामने आता रहा है।
सदन के भीतर विपक्षी दलों के गठबंधन की बात पहली लोकसभा 1952 के गठन के साथ ही शुरू हो गई थी। कुल 499 सदस्यों वाली संसद में कांग्रेस ने 364 सीटों पर जीत हासिल की थी। सत्ता पक्ष के विरुद्ध श्यामा प्रसाद मुखर्जी जनसंघ, हिंदू महासभा, अकाली दल, गणतंत्र परिषद को एक साथ लाने में सफल रहे और सदन में इनकी संख्या 32 तक पहुंच गई थी। उसी दौर में दूसरा गठबंधन सोशलिस्ट पार्टी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी (केएमपीपी) का बना तब इनके सदन में 28 सदस्य थे। केएमपीपी की स्थापना आचार्य जी बी कृपलानी ने कांग्रेस से असंतुष्ट होने के कारण की थी।
तीसरा गठबंधन कम्युनिस्ट पार्टियों का था जिसमें पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट के सात में से 6 सदस्य एवं आधे दर्जन से ज्यादा स्वतंत्र सदस्य शामिल हुए। इसके अलावा एक चौथा गठबंधन जयपाल सिंह के नेतृत्व में बना जिसमें झारखंड पार्टी के तीन सदस्यों के अलावा चार राजा, तीन जागीरदार व एक बड़े व्यवसायी का नाम शामिल था। सदन के भीतर बने इस गठबंधन के किसी भी समूह के पास सदन के कुल सदस्यों का 10% हिस्सा नहीं था ताकि विपक्ष के नेता के लिए सदन की मान्यता हासिल हो सके।
सदन के बाहर 1971 में इंदिरा गांधी का मुकाबला करने के लिए राष्ट्रीय डेमोक्रेटिक फ्रंट बना था। इसमें भारतीय जनसंघ, कांग्रेस (ओ), स्वतंत्र पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी शामिल थी। इसे स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास का पहला पूर्ण गठबंधन कहा जाता है। सन 1975 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में कांग्रेस (ओ), भारतीय जनसंघ और भारतीय लोकदल सहित पूरा विपक्ष मिलकर 1977 चुनाव में उतरा और दिल्ली की गद्दी से कांग्रेस (इ) को उखाड़ फेंका। इसके बाद वर्ष 1989 में जनता दल के नेता वीपी सिंह ने तेलुगू देशम पार्टी, डीएमके और असम गण परिषद जैसे क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर राष्ट्रीय मोर्चा बनाया। इस मोर्चे को भाजपा ने बाहर से समर्थन दिया था।
यह मोर्चा सरकार बनाने में तो सफल हुआ लेकिन जल्दी ही बिखर गया। आगे चलकर जनता दल के टुकड़े हजार हुए, कोई इधर गिरा कोई उधर गिरा। वर्ष 1999 में हुए 13 वीं लोकसभा के चुनाव में बीजेपी ने 16 दलों को साथ लेकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का गठन किया। वाजपेई जी के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद इस गठबंधन में नेशनल कान्फ्रेंस, मिजो नेशनल फ्रंट, सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट सहित कुछ अन्य छोटे दल भी जुड़े। वर्ष 2004 के चुनाव में कांग्रेस ने डीएमके और राष्ट्रीय जनता दल को साथ लेकर यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस यानी यूपीए का गठन किया।
हालांकि नीति कार्यक्रम और सिद्धांत के आधार पर सबसे लंबा गठबंधन पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों का रहा है लेकिन चूंकि अब वे ‘न तीन में रह गए हैं न तेरह में’, इसलिए उनकी गिनती तो छोड़िए चर्चा तक बेमानी हो गई है। हाल के वर्षों में केंद्र से लेकर राज्यों तक समय-समय पर बनने वाले गठबंधनों को देखकर लगता है कि गठबंधन बनते ही हैं बिगड़ने के लिए। विडंबना यह है कि गठबंधन बनाते समय जोर चेहरे पर रहता है, चाल और चरित्र पर नहीं। कई बार जनता को दिखाने के लिए साझा न्यूनतम कार्यक्रम भी बनाया जाता है पर वास्तव में साझा कार्यक्रम सत्ता की बंदरबांट का ही होता है।
याद करिए मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में घटक दलों के बीच मलाईदार मंत्रालयों को लेकर कितने दिन तक तमाशा चला था। हाल में महाराष्ट्र की घटनाओं ने गठबंधन राजनीति की विद्रूपताओं को सरेआम कर दिया है। आज बड़े दलों के साए में गठबंधन में शामिल छोटे दलों की हैसियत सजावटी बारातियों जैसी हो गई है। अंग्रेजी राज में जिस तरह बड़ी तादाद में राजा महाराजा अंग्रेज बहादुर को समर्थन देने के लिए उमड़ पड़ते थे, कमोबेश उसी तरह आज छोटे दल अपने निहित स्वार्थ के कारण घोषित नीति से समझौता करके जुड़ जाते हैं। यही वे दल हैं जो छोटी-छोटी बातों पर भी गठबंधन धर्म का मर्म भूल बिदक कर कहीं और चले जाते हैं। उत्तर प्रदेश के ओमप्रकाश राजभर की पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के कभी यहां कभी वहां के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है।
बहरहाल पिछले 25 वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर दो दीर्घजीवी और सफल गठबंधन रहे हैं। पहला भाजपानीत एनडीए और दूसरा कांग्रेसनीत यूपीए। एनडीए का यह सिल्वर जुबली वर्ष है। मोदी सरकार को सत्ता से हटाने के लिए विपक्ष अब नया गठबंधन बनाने में जुटा है, लेकिन लगे हाथों एनडीए के शिविर में छोटे बड़े हर तरह के दलों को शामिल करने की भाजपाई कवायद से यह साफ संकेत मिलता है कि गठबंधन की राजनीति का दौर आगे भी बदस्तूर चलने वाला है। ऐसे में जरूरी है कि गठबंधन राजनीति की तेजी से गिरती साख को बचाने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम के साथ-साथ नीति और सिद्धांत के आधार पर भी एकजुटता की जमीन तैयार की जाए ताकि मौकापरस्तों की मनमानी से बचते हुए स्थिर सरकार और सुशासन का आधार मजबूत हो।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।