प्रकाश मेहरा
कानूनों में सुधार की मांग: कानूनों में सुधार समय की मांग है और देश इस राह पर का तेजी से बढ़ रहा है। संसदीय समिति की अनुशंसा के बाद ही आपराधिक कानूनों में व्यापक सुधार की पीठिका तैयार हो गई थी और अब भारतीय दंड संहिता 1860, भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 तथा मूलतः 1878 में तैयार की गई दंड प्रक्रिया संहिता की जगह नए कानूनों को 20 दिसंबर को लोकसभा की मंजूरी मिल गई है। देश के आम लोगों की नजर से भी यह खुशी की बात है। राज्यसभा से पारित होने तथा राष्ट्रपति की सहमति के बाद ये पुराने कानूनों की जगह ले लेंगे। सबसे बड़ी बात यह है कि भारतीय दंड संहिता को अब भारतीय न्याय संहिता कहा जाएगा। मंशा यह है कि दंडित करने के बजाय लोगों को न्याय देने के प्रति हमारा ज्यादा ध्यान होना चाहिए। साक्ष्य से जुड़े कानून में वैज्ञानिक पद्धतियों को सुसंगत बनाते हुए भारतीय साक्ष्य अधिनियम के नाम से नया कलेवर दिया गया है। आम नागरिक की परेशानियों को ध्यान में रखते हुए दंड प्रक्रिया संहिता में व्यापक सुधार के बाद नए कानून का नाम भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता होगा।
कानूनों का मुख्य उद्देश्य
इन कानूनों का मुख्य उद्देश्य आम लोगों को न्याय मुहैया कराना है। चूंकि फौजदारी कानून जनता के मन में न्याय बोध पैदा करने का सबसे सशक्त माध्यम है, इसलिए सरकार की जिम्मेदारी है कि जरूरत के मुताबिक, उसमें सुधार करे। इनमें संशोधन के सुझाव तो पहले भी आए थे, किंतु मूर्त रूप नहीं ले सके थे। मसलन, सन् 1971 में विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इनमें व्यापक सुधारों का प्रस्ताव किया था। उनके लिए सन् 1972 तथा उसके बाद 1978 में विधेयक भी पेश किया गया था, किंतु दोनों बार लोकसभा के भंग हो जाने से वह स्वतः समाप्त हो गया। फिर 2003 में मलिमथ समिति ने भी कुछ सुधारों का प्रस्ताव किया था। उसमें से कुछ को कानून बनाकर जोड़ा भी गया, किंतु वह पैबंद के रूप में ही रहा।
नए कानूनों की दिशा
नए कानूनों को न्याय की दिशा में बहुत बड़ी पहल के रूप में देखा जा रहा है। आम आदमी की पहली मांग यही होती है कि पुलिस या कोई दूसरी एजेंसी उसको बेजा परेशान न करे और दूसरी यह कि उसे समय से न्याय मिल जाए। इन विधेयकों में इन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए पहले से बेहतर व्यवस्था की गई है। पुलिस की मनमानी रोकने के लिए पर्याप्त उपाय किए गए हैं तथा अदालतों में भी सुनवाई व विचार के लिए समयबद्ध कार्यक्रम तय कर दिया गया है।
आम लोगों की शिकायत
आम लोगों की सबसे बड़ी शिकायत थाने में एफआईआर दर्ज करने और पुलिस के रवैये को लेकर रहती है। इसे सुधारने का प्रयास किया गया है। संज्ञेय अपराधों की सूचना अव मौखिक, लिखित या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से दी जा सकेगी। थाने में इसे दर्ज किया जाएगा, जिस पर सूचना देने वाले व्यक्ति को तीन दिन के अंदर हस्ताक्षर करना होगा। इसका मतलब यह हुआ कि गिरफ्तारी के मामलों में पुलिस की मनमानी से निजात मिलेगी। रिपोर्ट दर्ज करने में होने वाली हीला-हवाली दूर करने के लिए भी यह व्यवस्था की गई है। अब कहीं से भी ई-मेल से किसी अपराध की सूचना किसी थाने में दर्ज कराई जा सकेगी। महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के मामले में यह साफ तौर पर कहा गया है कि पीड़िता के बयान को केवल महिला अधिकारी द्वारा ही दर्ज किया जाएगा।
पुलिस का व्यवहार
आम आदमी की दूसरी शिकायत पुलिस के व्यवहार को लेकर रहती है। बगैर लिखा-पढ़ी लोगों को थाने में बैठा लेने और उनके निकट संबंधियों को जानकारी नहीं देने तथा उनके साथ मानवीय व्यवहार न करने की शिकायतें आम हैं। अब गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी का नाम, उसकी पहचान तथा उसका नंबर उसकी वर्दी पर ऐसी जगह लिखा होना चाहिए, जहां उसे आसानी से पढ़ा और देखा जा सके। गिरफ्तारी के समय एक अभिलेख तैयार किया जाएगा, जिसे मौजूद गवाहों द्वारा सत्यापित किया जाएगा। गवाहों में कम से कम एक व्यक्ति गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति के घर का सदस्य या मित्र या समाज का कोई सम्मानित व्यक्ति अवश्य होना चाहिए। यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपलब्ध नहीं है, तो गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति द्वारा उस व्यक्ति का नाम दिया जा सकेगा, जिसे उसकी गिरफ्तारी की सूचना दी जानी हो। गिरफ्तार व्यक्ति को पूछताछ के दौरान अपने वकीलों से भी मिलने का अधिकार होगा। अब तीन वर्ष से कम सजा वाले मामलों में गिरफ्तारी से पहले वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की अनुमति लेनी होगी तथा तीन से सात वर्षों तक की सजा वाले अपराधों में भी अभियुक्त को गिरफ्तार करने से पहले प्रारंभिक जांच से यह सुनिश्चित करना जरूरी होगा कि अपराध किया गया है।
अदालतों में देरी पर इसका असर
अदालतों में होने वाली देरी को कम करने के लिए भी इस विधेयक में पुलिस व अदालतों के लिए समय- सीमा तय कर दी गई है। अब पुलिस के पास किसी भी मामले की जांच के लिए अधिकतम 180 दिनों का समय होगा। उसके बाद अदालत को 60 दिनों का समय दिया गया है, जिसमें अभियोग तय करने की कार्यवाही की प्रक्रिया पूरी करनी होगी। सुनवाई पूरी होने के बाद अदालत को 30 दिन के अंदर ही फैसला देना होगा, जिसे सात दिनों के अंदर ऑनलाइन उपलब्ध कराना होगा।
लोक सेवकों से जुड़े अपराध के मामले में जहां मुकदमा चलाने के लिए विभागीय अनुमति की जरूरत है, वहां निर्णय लेने वाले अधिकारी को 120 दिनों के अंदर ही उस पर निर्णय लेना होगा, यदि इस समय- सीमा में कोई निर्णय नहीं लिया जाता है, तो इसके बाद यह मान लिया जाएगा कि अनुमति दे दी गई है और मुकदमा चलाया जा सकता है। वैसे दुष्कर्म व महिलाओं के विरुद्ध होने वाले कुछ अपराधों तथा मानव तस्करी जैसे मामलों में किसी प्रकार की अनुमति की जरूरत नहीं होगी।
सजा पर ऐतिहासिक पहल
सजा के मामले में भी एक ऐतिहासिक पहल की गई है। सामुदायिक सेवा को भी कुछ मामलों में सजा के रूप में मान्यता दी गई है। इससे भावावेश में अपराध करने वाले लोगों को पश्चाताप और मुख्यधारा में ही बने रहने का विकल्प उपलब्ध रहेगा। मतलब, देश अब सकारात्मक सजा की ओर बढ़ चला है। कानून के इन अच्छे प्रावधानों का लाभ आम लोगों तक पहुंचाने के लिए पूरी ईमानदारी और उदारता की जरूरत पड़ेगी।
तीन हम कानून बदल रहे और उनको आम लोगों के अनुरूप बनाया जा रहा है। जरूरत है की इन कानूनों को अब धरातल पर पूरी ईमानदारी व उदारता के साथ लागू किया जाए : प्रकाश मेहरा