जिन्ना का जिन फिर बोतल से बाहर आ गया है. अतीत में भी यह जिन कई बार बाहर आया है और जब भी यह बोतल से बाहर निकला, खूब उठापटक की और किसी न किसी नेता की बलि ले गया. सोलह साल पहले इस जिन ने तत्कालीन बीजेपी (BJP) अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी की बलि ले थी. इसके पहले भी अक्सर जिन्ना भारत की राजनीति में उलट-फेर करते रहे हैं. इस बार समाजवादी पार्टी (SP) के अध्यक्ष अखिलेश यादव निशाने पर हैं. इस बार भी लालच ख़ुद को मुसलमानों का ख़ैरख़्वाह दिखाने की इच्छा थी. लाल कृष्ण आडवाणी जहां अपनी कट्टरवादी हिंदू छवि का चोला उतरना चाहते थे इसलिए उन्होंने जिन्ना का सहारा लिया. अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान वे जिन्ना की मज़ार पर गए और उन्हें सेकुलर होने का सर्टिफिकेट दे आए. इस बार अखिलेश यादव ने मुस्लिमों के वोटों की आकांक्षा में आग पर हाथ झोंक दिए हैं.
जिन्ना भारत के लिए विलेन बने
जिन्ना को लेकर भारत की राजनीति क्यों गरमाती है, इसका मनोविज्ञान समझना चाहिए. दरअसल जिन्ना भले कभी भारत की आज़ादी के लिए राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े रहे हों पर बाद में जिस तरह उन्होंने इस राष्ट्रीय आंदोलन की अगुआ कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहना शुरू कर दिया वे बहुसंख्यक हिंदुओं के लिए खलनायक बनते चले गए तथा अलग मुस्लिम देश की मांग पर अड़ी मुस्लिम लीग के हीरो. बाद में डायरेक्ट एक्शन के नाम पर उन्होंने पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल में जिस तरह से अल्पसंख्यक हिंदुओं का संहार करवाया, उसके बाद से वे सबकी निगाह से उतरते गए. उन्होंने भारत का बंटवारा क़राया और पंजाब का पश्चिमी हिस्सा तथा बंगाल का पूर्वी भाग लेकर एक अलग देश पाकिस्तान बनवाया. मज़हब के नाम पर बने देश में मानवीय मूल्यों की रक्षा नहीं हो पाती. भले जिन्ना ने अपने देश के अल्पसंख्यकों की रक्षा का वचन दिया हो किंतु वहाँ अल्पसंख्यक कभी सिर उठा कर जी नहीं सके. बाद में भाषा को लेकर पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने विद्रोह किया और वे बाँग्ला देश लेकर अलग हो गए.
‘जिन्ना ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी’
मज़े की बात जो कांग्रेस 16 साल पहले जिन्ना को लेकर आडवाणी पर हमलावर थी वही आज इसी मुद्दे पर अखिलेश का बचाव कर रही है. जबकि अखिलेश यादव ने जिन्ना की तुलना महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल से कर दी है. उन्होंने रविवार को एक पब्लिक रैली में कह दिया कि महात्मा गांधी, सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू की तरह ही हमारी आज़ादी के हीरो थे. अब इस बयान पर हंगामा तो होना ही था और हो भी रहा है. रविवार को हरदोई में अखिलेश ने या तो अनजाने में अथवा जान-बूझकर जिन्ना का नाम लिया था. उन्होंने सरदार पटेल के संदर्भ में कहा कि वे ज़मीन के आदमी थे इसलिए ज़मीन को पहचानते थे. बाद में वे बोले कि सरदार पटेल, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और जिन्ना एक ही संस्था से पढ़ कर आए और बैरिस्टर बने. सब ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी. उन्होंने यहां तक कह दिया कि जिन्ना और गांधी जी की सोच एक थी. अब बीजेपी ने उन्हें घेर लिया है, किंतु कांग्रेस उनका बचाव कर रही है.
प्रियंका की सॉफ़्टनेस
जिन्ना के बयान पर अखिलेश का बचाव कांग्रेस की राजनीतिक मजबूरी भी है. दरअसल कांग्रेस यूपी में अपना भविष्य देख रही है. प्रियंका गांधी पूरे ज़ोर-शोर से जुटी हैं. यद्यपि वे जानती हैं कि कांग्रेस यूपी की लड़ाई में मुख्य भूमिका में नहीं है. पिछले विधानसभा चुनाव में उसे सात सीटें मिली थीं, हो सकता है इस बार वह दहाई में पहुंच जाए. कांग्रेस लोकसभा को देख रही है जो इस चुनाव के दो साल बाद होगा. यूपी की 80 लोकसभा सीटें जीतने के लिए विधानसभा में उसे अखिलेश यादव के प्रति अतिशय उदारता दिखानी होगी. इसलिए वह अखिलेश पर हमलावर नहीं होगी. इसके विपरीत बीजेपी इस विवाद में सपा और कांग्रेस (CONGRESS) दोनों को घेरना चाहती है. उसे इन दोनों की लड़ाई में फ़ायदा है, इसलिए वह प्रयास में है कि इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि के रोज़ आए इस बयान से वह कांग्रेस को भी घेर ले. शुरू में जब प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में आक्रामक हुई थीं तब बीजेपी खुश थी कि प्रियंका का उभार अखिलेश यादव को नुक़सान पहुंचाएगा किंतु अभी तक प्रियंका अखिलेश के प्रति सॉफ़्ट बनी हुई हैं.
अखिलेश की भूल
बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में बसपा को चुप करा रखा है लेकिन वहाँ पर यूपी सरकार की नाकामी अनजाने में सपा को लाभ पहुंचा रही है और अखिलेश को लड़ाई के केंद्र में ला दिया है. हालांकि इसके लिए अखिलेश ने कोई ख़ास प्रयास नहीं किया बल्कि हालात ही उनके अनुकूल बन गए. ऐसे में उनकी एक भी चूक उन्हें रसातल में पहुंचा सकती है. इसलिए बीजेपी उनके हर कदम को बारीकी से वॉच (WATCH) कर रही है. बीजेपी को लगता है कि जिन्ना की तारीफ़ उन्हें महंगी पड़ सकती है. यही कारण है कि बीजेपी और संघ के विचारक अखिलेश यादव के बयान को लेकर हमलावर हो गए हैं. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो उनकी लानत-मलामत की ही है, राकेश सिन्हा ने तो अखिलेश यादव के इतिहास ज्ञान पर सवालिया निशान लगा दिया है. अखिलेश यह भारी भूल कर बैठे हैं. संभव है, उनके इस बयान से उन्हें कुछ मुस्लिम वोट मिल जाए लेकिन उनके अपने यादव वोटों को भी धक्का लगा है. दरअसल अखिलेश यादव अभी राजनीति के कच्चे खिलाड़ी हैं. उन्हें अब अपने पिछड़े वोट बैंक की मानसिक स्थिति की भी जानकारी नहीं है.
यादव सत्ता में अपनी भागीदारी चाहते हैं, एक परिवार की नहीं
अभी 27 अक्तूबर को कानपुर से लौटते हुए मैं इटावा और जसवंत नगर के बीच सराय भूपत के एक रोड साइड होटल में चाय पीने के लिए रुका था. यह लाइन होटल हर तरह से सुसज्जित था. एयर कंडीशंड डाइनिंग हाल और बाहर लॉन में धूप के मज़े लेते हुए भी बैठ सकते थे. होटल एक यादव का ही था. जब मैंने उससे राजनीतिक हालात की चर्चा की तो उसने कहा कि अखिलेश यादव की दिक़्क़त यह है कि वे अपनी बिरादरी के वोटरों को अपना बंधुआ समझते हैं. अब जिस तरह से यादव लोग गांव से निकल कर शहर आए हैं, उससे उनकी माली हालत सुधरी है. अब वे सत्ता में एक परिवार का राज नहीं बल्कि अपनी भागीदारी चाहते हैं. मगर अखिलेश यादव बिरादरी को भागीदारी देने से बचते हैं. ऐसे में मुस्लिम वोटों को रिझाने का उनका खेल उन्हें महंगा पड़ सकता है. क्योंकि शहरी यादव इतिहास भूगोल को भी समझता है. उसे इस तरह के बयान निश्चय ही बुरे लगेंगे. दूसरे अखिलेश यादव को समझना होगा कि उनका कोर वोट बीजेपी तथा अन्य पार्टियों में भी बंट रहा है.
भविष्य के दांव
प्रश्न यह उठता है कि अखिलेश अब अगला दांव क्या चलेंगे? एक विकल्प है कि वे वेस्ट यूपी में रालोद (RLD)के जयंत से समझौता करें तथा सेंट्रल में कांग्रेस के साथ अंदरखाने सीट एडजस्टमेंट कर लें, क्योंकि अगर राज्य स्तरीय कोई समझौता किया तो कांग्रेस और सपा दोनों को नुक़सान होगा. इसी तरह ईस्ट यूपी में सुहेलदेव पार्टी के साथ अंतरंगता स्थापित करें. अब जातीय गोलबंदी में कोई एक जाति किसी को भी जिताने में सक्षम नहीं है बल्कि कई जातियों के साथ एक मोर्चा बन सकता है. अब न सारा यादव सपा का है न सारा जाट रालोद का और न ही सारा दलित बसपा (BSP) को वोट करता है. इसी तरह अगड़ा और मुस्लिम भी किसी एक पार्टी के साथ नहीं है. इस पर सारे राजनीतिक दलों को गौर करना चाहिए.