अजय दीक्षित
जुलाई की शुरुआत से दुधारू पशुओं को गिरफ्त में लेने वाले लम्बी त्वचा रोग से निपटने में विभिन्न सरकारों ने जैसी हीला-हवाली की उसका नतीजा है कि पशुपालक किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है । समय रहते इसके उपचार को गम्भीरता से न लेने का ही परिणाम है कि देश के कई राज्यों के पशु इस रोग से मर रहे हैं । इतना ही नहीं, दुधाऊ पशुओं ने दूध देना कम कर दिया है । हालत यह है कि पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात व जम्मू कश्मीर में हजारों जानवर इस रोग की चपेट में हैं । रोग की चपेट में आने वाले पशुओं में गायें ज्यादा हैं । यदि अधिकारी राज्यों की सीमाओं पर सख्ती बरतते तो इस रोग का अन्तर्राज्यीय स्तर पर प्रसार न होता । फिलहाल तो डेयरी उद्योग से जुड़े किसान बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं ।
बताते हैं कि यह रोग जहां गायों की दूध देने की क्षमता में कमी लाता है, वहीं प्रजनन क्षमता पर भी प्रतिकूल असर डालता है । वहीं दूसरी ओर हजारों मृत पशुओं के शवों का निस्तारण भी बड़ी चुनौती है। शवों का निपटान वैज्ञानिक तरीके से नहीं हो पा रहा है। कई जगह जानवरों के शव खुले में पड़े रहते हैं। घोर कुप्रबंधन का आलम यह है कि पशुपालक मरे जानवरों के शवों को नदी – नहरों में फेंक जाते हैं। बताया जाता है कि अकेले पंजाब में ही चार हजार से अधिक पशु मर चुके हैं और 75 हजार इस रोग से पीडि़त हैं। निस्संदेह, इस बड़ी चुनौती से मुकाबले को बहुकोणीय नजरिये से युद्ध स्तर पर काम करने की जरूरत है। जहां तुरंत उपचार व रोग की रोकथाम के लिये अतिरिक्त धन की मंजूरी जरूरी है, वहीं पशु चिकित्सालयों में पर्याप्त चिकित्सकों व कर्मचारियों की उपलब्धता की तत्काल आवश्यकता है। साथ ही वैकल्पिक वैक्सीन किसानों की सहज पहुंच में होनी चाहिए। पशु पालकों को जागरूक करने तथा रोग के प्रसार को रोकने के वैज्ञानिक उपायों के बारे में बताना भी जरूरी है । बहरहाल, इस संक्रामक रोग से हालात इतने बिगड़ गये हैं कि समाज में स्वास्थ्य व पर्यावरणीय संकट की चुनौती पैदा हो गई है ।
इस रोग के चलते चुनौतियों की एक श्रृंखला उत्पन्न हुई है । वहीं पशु चिकित्सकों की कमी से समस्या और विकट हो रही है । इस रोग से जुड़े अनुसंधान के बाद पता लगाया जाना चाहिए कि रोग की रोकथाम के लिये जो वैकल्पिक वैक्सीन दी जा रही है क्या वह स्वस्थ पशुओं को रोग से बचाने में कारगर है । दरअसल, विशेषज्ञों की सलाह के बावजूद अफवाहें फैलायी जा रही हैं कि रोग के चलते गाय का दूध पीना नुकसानदायक हो सकता है । इस बाबत समाज में प्रगतिशील सोच बनाये जाने की जरूरत भी है । साथ ही वैज्ञानिकों की आवाज को प्रभावी बनाने की भी आवश्यकता है । वहीं इस संक्रामक रोग ने पिछले एक दशक में जानवरों को दफनाने के लिये आरक्षित स्थानों को खुर्द-बुर्द करने के संकट को भी उजागर किया है । अवैध कब्जों के चलते इसमें लगातार संकुचन हुआ है । वहीं इस समस्या के विस्तार की एक वजह यह भी है कि चर्मकर्म से जुड़े लोगों का मृत पशुओं के निस्तारण में रुझान कम हुआ है । जिसकी एक वजह यह भी है कि चमड़े, हड्डियों व खुरों की बिक्री से होने वाला लाभ कम हो गया है । फलत: मृत जानवरों के शवों को उठाने के वार्षिक अनुबंध की प्रथा समाप्त होने के कगार पर है । दरअसल, इस समस्या के सभी कोणों पर विचार करना भी जरूरी है। साथ ही निवारक कदमों के साथ इस रोग से बचाव को लेकर जागरूकता फैलायी जानी चाहिये क्योंकि साल-दर-साल इस रोग का प्रसार बढ़ा है । हाल के वर्षों में लम्पी स्किन डिजीज़ से रुग्णता पचास फीसदी तक बढ़ी है और मृत्यु दर भी एक से पांच फीसदी के भीतर है । ऐसे में इस रोग के खात्मे और पशुपालकों की जीविका बचाने के लिये दीर्घकालीन रणनीति पर काम करने की जरूरत है । यह रोग हर साल राज्यों की सीमाओं को पार करके कहर बरपा रहा है ।