प्रकाश मेहरा
नई दिल्ली: गुजरे हफ्ते तीन ऐसी बड़ी खबरों ने आकार लिया, जो देश की दशा-दिशा बदल सकती हैं। पहली, उत्तराखंड के रास्ते देश में समान नागरिक संहिता का दखल और सप्ताह के अंत में गृह मंत्री अमित शाह की घोषणा कि चुनाव से पहले समूचे देश में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लागू कर दिया जाएगा। दूसरी, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा मथुरा और काशी के धर्मस्थलों पर अपना अधिकार जताया जाना। तीसरी, कर-लाभ में अपनी हिस्सेदारी को हासिल करने के लिए दक्षिण के राज्यों की दिल्ली में दस्तक ।
कार्यकाल के फैसलों पर ब्लैक-पेपर
इनके अलावा इसी हफ्ते एक और खबर ने सुर्खियां हासिल की, वह थी यूपीए सरकार की तथाकथित आर्थिक भूलों पर केंद्र सरकार द्वारा संसद में श्वेत-पत्र की प्रस्तुति। विपक्ष ने उसके पहले ही मौजूदा सरकार के एक दशक लंबे कार्यकाल के फैसलों पर ‘ब्लैक-पेपर’ जारी कर दिया।
यूसीसी, एनआरसी, सीएए पर चर्चा
सबसे पहले समान नागरिक संहिता की बात। आपको याद होगा, प्रधानमंत्री मोदी के पहले कार्यकाल में जब यह मुद्दा पहली बार चर्चा में आया था। इसके साथ ही सीएए और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का मुद्दा भी जोर-शोर से उठाया गया था। अल्पसंख्यकों को लगा था कि यह हमें दर-बदर करने का अनूठा तरीका है। पूरे देश में विरोध की लहर फैल गई थी। कई जगह तो पुलिस से हिंसक झड़प भी हुई थी और इस दौरान 65 लोग मारे गए थे। इसका असर विकास-कार्यों पर भी पड़ा, क्योंकि लंबे समय तक इंटरनेट बंद करने पड़े थे।
एक उदाहरण देता हूं। उन दिनों मैं कुछ दिन के लिए लैंसडोन गया था। लौटते समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक बड़े हिस्से में इंटरनेट नदारद मिला। मैंने रुककर परीक्षा की तैयारी कर रहे बच्चों से बात की, तो जानकर चकित रह गया कि वे जरूरी पाठ्य-सामग्री से वंचित रह गए थे। मुफस्सिल छोटे कस्बों में, जहां समुचित मात्रा में किताबें उपलब्ध नहीं हैं, इंटरनेट एक अनिवार्य सहायक के तौर पर उभरा है। आप चाहें, तो इसे प्रधानमंत्री के ‘डिजिटल इंडिया’ की झलक भी मान सकते हैं।
कोविड के झपट्टे से आंदोलन ग्रस
इसी दौरान नई दिल्ली के शाहीन बाग और देश के कुछ अन्य हिस्सों में लंबे धरने आयोजित हुए, जिन्होंने विदेशी मीडिया और एशियाई देशों की दरारों में टांग अड़ाने वालों को सुनहरा मौका मुहैया करा दिया था। शोर-शराबे के इस दौर में कोविड के झपट्टे ने इन आंदोलनों को ग्रस लिया, और सरकार ने भी उसे ठंडे बस्ते में डालने में भलाई समझी। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि असम में 1980 के दशक में प्रफुल्ल कुमार महंत की सरकार ने यह प्रयोग करने की कोशिश की थी। परिणाम त्रासद और अमानवीय साबित हुए थे।
समान नागरिक अधिकार देश की पहचान!
इसका यह मतलब मत निकाल लीजिएगा कि एनआरसी हमेशा के लिए ठंडे बस्ते में चला गया है। चुनाव से ऐन पहले समान नागरिक संहिता को चर्चा के केंद्र में लाकर सरकार ने अपनी मंशा साबित कर दी है। उत्तराखंड के बाद अब तमाम भाजपा शासित राज्यों ने इसे लागू करने की इच्छा जताई है। अमित शाह की घोषणा के बाद अब यह तय हो गया है कि समान नागरिक संहिता इस देश की हकीकत बनने जा रही है। उत्तराखंड में इसके लिए अभिनव तरीका इस्तेमाल किया गया। वर्ष 2018 में भारतीय विधि आयोग की मनाही के बावजूद उच्चतम न्यायालय की सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई की सदारत में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने एक कमेटी गठित की, जिसने इसके प्रावधानों पर कानूनी मुहर लगा दी।
भारतीय जनता पार्टी का पुराना नारा
समान नागरिक संहिता भारतीय जनता पार्टी का उतना ही पुराना नारा है, जितना जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की रुखसती का था। कश्मीर में वह सिलसिला संपूर्ण हो चुका है और अब समान नागरिक संहिता की बारी है। नरेंद्र मोदी भगवा दल के पहले प्रधानमंत्री हैं,जिन्होंने पार्टी के इन पुराने वायदों को अमलीजामा पहनाया है। अच्छा होता कि इस मामले में सभी संबंधित पक्षों को विश्वास में लिया जाता। ऐसा नहीं किया जा सका और इसीलिए प्रतिरोध की आवाजें उठ रही हैं। लोकतंत्र में आम सहमति भी उतनी ही जरूरी है, जितनी कि अपना एजेंडा पूरा करने की इच्छाशक्ति। अब आते हैं, योगी आदित्यनाथ की मांग पर। उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी पहले से मथुरा और काशी के मुद्दे गरमा रहे थे, पर बुधवार को जिस तरह विधानसभा में उन्होंने कहा कि पांडवों ने पांच गांव मांगे थे, हम तो सिर्फ तीन स्थान मांग रहे हैं, वह अपने आप में मुकम्मल बयान है।
अयोध्या तो झांकी है काशी-मथुरा बाकी है!
क्या वह याद दिला रहे थे कि पांडवों की मांग ठुकराने का अंजाम क्या हुआ था ? योगी की गणना मजबूत और सक्षम मुख्यमंत्री के रूप में होती है। उनके नेतृत्व में उत्तर प्रदेश बीमारू राज्यों की श्रेणी से बाहर निकल आया है, पर वह अपने भगवा-वस्त्र की मान-मर्यादा कायम रखना जानते हैं। उनके इस बयान से बहुसंख्यक वर्ग को भले ही खुशी हो, पर एक वर्ग आशंकित हो उठा है। पुरानी पीढ़ी को याद होगा कि 1980 के दशक में बड़ी संख्या में भीड़ नारे लगाती थी- अयोध्या तो बस झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अगुवा मोहन भागवत कह चुके हैं कि राम जन्मभूमि के बाद हमारा किसी नए आंदोलन का इरादा नहीं है, इसके बावजूद यदि मुख्यमंत्री योगी ने यह मसला उठाया है, तो इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
मांगों को उठाने वाले कितने सही?
अब दक्षिणी राज्यों की मांग पर आते हैं। वे टैक्स में पूरा हिस्सा न मिलने के मामले में अकेले नहीं हैं। देश के तमाम अन्य राज्य भी रह-रहकर इसकी मांग उठाते रहे हैं। कुछ दिनों पहले ममता बनर्जी ने सरेआम यही शिकायत की थी। इन मांगों को उठाने वाले कितने सही हैं? वे स्वयं जानते हैं कि जनता द्वारा जमा किया गया टैक्स किसी की जेब में नहीं जाता। खुद उनकी सरकारें भी टैक्स से हासिल हुए धन के वितरण को लेकर तरह-तरह की परेशानियां झेलती हैं। केंद्र को सीमाओं की रक्षा से लेकर, इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास, डिजिटलीकरण आदि के साथ और भी दर्जनों बुनियादी जरूरतों के लिए धन की आवश्यकता होती है। केंद्र द्वारा प्रदत्त सुविधाओं का लाभ कोई राज्य विशेष नहीं, बल्कि पूरा देश उठाता है। यह समय है, जब दक्षिण के अमीर राज्य उत्तर, उत्तर-पूर्व और पूर्व के अपेक्षाकृत आर्थिक रूप से निर्बल प्रदेशों के उत्थान में मदद करें। किसी भी प्रदेश का विकास समूचे देश की तरक्की को बल देता है।
तय है, ये तीनों मुद्दे अति संवेदनशील हैं, मगर इन पर सियासी दलों को आपस में एका स्थापित करना चाहिए। क्या ऐसा हो सकेगा या लोकतंत्र में आम सहमति के दिन लद चुके हैं?