हिंदू धर्म में भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन मास की अमावस्या तिथि के 16 दिन को पितृपक्ष के नाम से जाना जाता है। इस पितृपक्ष में पितरों के लिए विधि-विधान से श्राद्ध करने की जो परंपरा लंबे समय से चली आ रही है, उसे लेकर अक्सर लोगों के मन में सवाल उठता है कि आखिर ये पितर कौन होते हैं और आखिर उनके लिए ये श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान आदि क्यों किया जाता है? पितरों की पूजा करने पर किसी को व्यक्ति को क्या फल मिलता है? यदि ये सभी सवाल आपके मन में भी अक्सर कौंधते रहते हैं तो आइए इसका जवाब और श्राद्ध का धार्मिक महत्व विस्तार से जानते हैं।
कौन होते हैं पितर
हिंदू धर्म में पितर को 84 लाख योनियों में से एक माना गया है। मान्यता है कि विभन्न लोकों में रहने वाले ये दिव्य आत्माएं संतुष्ट होने पर व्यक्ति पर अपना आशीर्वाद बरसाती हैं, जिससे मनुष्य को धन, यश, कीर्ति आदि की प्राप्ति होती है और कुल की वृद्धि होती है। इस तरह से देखें तो पितृपक्ष के दौरान किया जाने वाला श्राद्ध पूर्वजों के प्रति अपनी श्रद्धा और कृतज्ञता को व्यक्त करने का माध्यम है। जिससे प्रसन्न होकर पितर सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं।
कब शुरु हुई श्राद्ध की परंपरा
पितृपक्ष में पितरों के किए जाने वाले श्राद्ध के बारे मान्यता है कि इसकी शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। मान्यता है कि जब मृत्यु के बाद सूर्यपुत्र कर्ण की आत्मा स्वर्ग पहुंची तो उन्हें वहां पर खाने के लिए भोजन की बजाय ढेर सारा स्वर्ण दिया गया। तब उन्होंने इंद्र देवता से इसका कारण पूछा तो उन्होंने कर्ण को बताया कि पृथ्वी पर रहते हुए उन्होंने कभी भी अपने पितरों के निमित्त कभी भी भोजन दान, तर्पण आदि नहीं किया। तब कर्ण ने जवाब दिया कि उन्हें अपने पूवजों के बारे में कुछ भी ज्ञात न था, इसलिए अनजाने में उनसे यह भूल हुई। तब उन्हें अपनी भूल को सुधारने के लिए पृथ्वी पर 16 दिन के लिए भेजा गया। जिसके बाद उन्होंने अपने पितरों के मोक्ष के लिए विधि-विधान से श्राद्ध किया। मान्यता है कि तभी से पितृपक्ष के 16 दिनों में श्राद्ध करने की परंपरा चली आ रही है।